भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
गाँव गाँव ख़ामोशी सर्द सब अलाव हैं / सब्त अली सबा
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ३ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:25, 8 अक्टूबर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सब्त अली सबा }} {{KKCatGhazal}} <poem> गाँव गाँव ...' के साथ नया पन्ना बनाया)
गाँव गाँव ख़ामोशी सर्द सब अलाव हैं
रह-रव-ए-रह-ए-हस्ती कितने अब पड़ाव हैं
रात की अदालत में जाने फै़सला क्या हो
फूल फूल चेहरों पे नाख़ुनों के घाव हैं
अपने लाडलों से भी झूठ बोलते रहना
ज़िंदगी की राहों में हर क़दम पे दाओं हैं
रौशनी के सौदागर हर गली में आ पहुँचे
ज़िंदगी की किरनों के आसमाँ पे भाव हैं
चाहतों के सब पंछी गए पराई ओर
नफ़रतों के गाँव में जिस्म-जिस्म घाव हैं