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गाँव ना लौट पाने की पीड़ा (करोना काल) / ज्योति रीता

मैं लौटना चाहता हूँ घर
करना चाहता हूँ छप्पर की मरम्मत
बनाना चाहता हूँ द्वार पर एक मचान
भोरे-भिनसारे गाय को कुट्टी-सानी देकर
बुहारना चाहता हूँ गौशाल
अपने छोटे से खेत में
लगाना चाहता हूँ गरमा धान
पिता जो कल तलक कर्कश थे
आज बैठना चाहता हूँ देह लगकर

पत्नी कहती है
मांजी से मिलने का बड़ा मन कर रहा
अब मांजी के साथ रहकर सेवा करूंगी
चूल्हा लिपुंगी
खाना पकाऊंगी
साग खोटूंगी
नून संग रोटी खा लूंगी
पर शहर कभी ना लौटूंगी

आज याद आ रहे सारे गँवार दोस्त
जामुन-बेर की डाली
आवारगी से लौटने पर
गरम-गरम रोटी थापती माँ
दौड़कर पानी लाती बहन

पर सुना है
गांव के आखिरी मुंडेर पर
बड़ा सख्त पहरा है
जो लोग जाते ही गले लगाते थे
आज लाठी-डंडे लेकर खड़े रहते हैं॥