Last modified on 21 सितम्बर 2010, at 17:34

गांधी की विरासत / सुभाष राय

Firstbot (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:34, 21 सितम्बर 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुभाष राय |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> उसने कहा बुरा मत दे…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

उसने कहा
बुरा मत देखो
और हमने आंखें
बंद कर लीं
धृतराष्ट्र तो अंधा था
हमने साबुत आंखों
के बावजूद पसंद किया
अंधे की तरह जीना
हम कुछ नहीं देखते
पता नहीं क्या
बुरा दिख जाये
हमारी आंखें बंद हैं
तो मन भला-चंगा है
हमारी कठौती में गंगा है

उसने कहा
बुरा मत सुनो
और हमने सुनना
बंद कर दिया
बहरे हो गय हमे
नहीं पहुंचतीं हम तक
अब किसी की चीखें
किसी पीड़ित की
व्याकुल पुकार
अत्याचार से दम
तोड़ते आदमी का
करुण आर्तनाद
विचलित नहीं करता हमें

उसने कहा
बुरा मत बोलो
मसीहे की बात
कैसे नहीं मानते हम
हम जो भी बोलते हैं
भला बोलते हैं
लोग न समझें तो
हमारा क्या दोष
गूंगे नहीं बन सकते हम
उसकी विरासत
संभालनी है हमें
आजादी बचानी है
लोकतंत्र जमाना है
बहुत भार है हमारे
नाजुक कंधों पर
निभाना तो पड़ेगा
बेजुबान होकर
कैसे रह सकेंगे
कभी अक्षरधाम
कभी कारगिल
कभी दांतेवाड़ा
बहादुरों के जनाजों पर
राष्ट्रगान गाना तो पड़ेगा
 
वह मसीहा था
बहुत समझदार
नेक और ईमानदार
उसका चौथा बंदर
कभी आया ही नहीं
हमसे यह कहने
कि कुछ करो भी
जनता के लिए
देश के लिए
फिर भी हम नहीं भूले
अपना करणीय
कर्म पथ से नहीं हटे

आइए कभी हमारे
गांव, हमारे शहर
कोई दिक्कत नहीं होगी
जहाज उतर सकता है
ट्रेन भी जाती है वहां से
जगमग, जगमग
जहां दिखे, समझना
हमारा घर आ गया
होटल हैं, स्कूल हैं
अस्पताल हैं
गांव में अब कहां
किस चीज का अकाल है

कर्मयोगी रहे हम
गांधी के सच्चे अनुयायी
सुख-संपदा तो यूं ही
बिन बुलाये चली आयी
सब बापू का है
सब बापू के नाम
उस महात्मा को प्रणाम