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गांधी (3) / महेन्द्र भटनागर


प्राची के उगे तुम सूर्य
सहसा बुझ गये !
पर, तुम्हारी
फैलती ही जा रही है ज्योति !
दिग-दिगन्तों में समा,
अति शीत ईथर के
असीमित तम किनारों तक,
कि मन की सूक्ष्मतम सब
घाटियों के अंध तम से बंद
पट ज्योतित !
तुम्हारी दिव्य शाश्वत
आत्मा के तेज से
ये धुल गये
जीवन-मलिनता के
अशिव सब भाव !
युग-युग की दबी
खंडित धरित्री पर
गयी बह सत्य अमृत धार !
तुमने कर दिया
उपचार घावों का,
मनुजता के सभी
आधार दावों से !
जगत को कर दिया आश्वस्त
देकर मुक्त विश्व-विधान,
जो सुखमय भविष्यत् का
अमर वरदान !
1949