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गांधी (4) / महेन्द्र भटनागर

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तुमने बुझते
युग-मानव के उर-दीपक में
निज जीवन का संचित स्नेह ढाल
अभिनव ज्योति जगायी है !
पर, उस दिन को जोह रहे हम
जब कह पाएँ
किरणों की आभा में जिसकी
सुन्दर जगमग झाँकी भव्य सजायी है !
मानवता की मानों हुई सगाई है !
नव-मानव शिशु को तुमने जन्म दिया,
जीने का अधिकार दिया,
निर्मल सुख शांति अमर उपहार दिया,
होठों को निश्छल मुक्त हँसी का
वरदान दिया,
कोटि-कोटि जन को रहने को
आज़ाद नया हिन्दुस्तान दिया !
जिसके नभ के नीचे
सत्य, अहिंसा का नूतन फूल खिला,
फैली बर्बर जर्जर संस्कृति के भीतर
ज्ञान-सुगन्ध हवा ;
जिसने पीड़ित जन-जन का ताप हरा !

तुमने भर ली अपने उर में
युग की सारी मर्म व्यथा !
जिसको क्षण भर देख लिया केवल
उसने समझा अब जीवन पूर्ण सफल !
याद तुम्हारी शोषित दुनिया का संबल !
एक दिवस उट्ठेगा निश्चय
सोया, भूला समुदाय
तुम्हारा ही प्रेरक-स्वर सुनकर !
1949