http://kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%97%E0%A4%BE%E0%A4%AF_/_%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%95%E0%A5%87%E0%A4%B6_%E0%A4%B0%E0%A4%82%E0%A4%9C%E0%A4%A8&feed=atom&action=historyगाय / राकेश रंजन - अवतरण इतिहास2024-03-28T17:47:28Zविकि पर उपलब्ध इस पृष्ठ का अवतरण इतिहासMediaWiki 1.24.1http://kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%97%E0%A4%BE%E0%A4%AF_/_%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%95%E0%A5%87%E0%A4%B6_%E0%A4%B0%E0%A4%82%E0%A4%9C%E0%A4%A8&diff=249227&oldid=prevअनिल जनविजय: '{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राकेश रंजन |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKav...' के साथ नया पृष्ठ बनाया2018-05-23T09:02:42Z<p>'{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राकेश रंजन |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKav...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
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<poem><br />
जब भी कोई उत्सव होता<br />
बाबा उसे सजाते थे<br />
कभी-कभी तो उसे पूजते<br />
औ' आरती दिखाते थे<br />
<br />
अक्सर वह अपने खूँटे से<br />
बँधकर, डरकर रहती थी<br />
जाने क्या-क्या दुख सहती थी<br />
नहीं कभी कुछ कहती थी<br />
<br />
ग़म खाकर भी रह लेती थी<br />
आँसू पी भी जी लेती<br />
अगर कलेजा फटता उसका<br />
चुपके-छुपके सी लेती<br />
<br />
आज मगर कर्तव्यमूढ़-से<br />
बाबा ने बेबस उसको<br />
सौंप दिया कम्पित हाथों से<br />
एक अजाने मानुस को<br />
<br />
चली गई वह देह सिकोड़े<br />
मुँह लटकाए रोती-सी<br />
संझा के बोझल पलछिन में<br />
दृग से ओझल होती-सी<br />
<br />
कहाँ गई वह चिर दुखियारी<br />
बस्ती या वीराने में<br />
हरे-भरे-से चरागाह में<br />
या फिर बूचड़खाने में<br />
</poem></div>अनिल जनविजय