भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गालियाँ, गोलियाँ सब ओर हमेशा की तरह / किशन सरोज

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:13, 9 जनवरी 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=किशन सरोज |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatGhazal...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

गालियाँ, गोलियाँ सब ओर हमेशा की तरह,
और चुपचाप हैं कमज़ोर हमेशा की तरह ।

काली मारुति में उठा ले गए फिर एक लड़की,
झुग्गियों में, लो मचा शोर हमेशा की तरह ।

गांव जा पाऊँ तो पूछूँ कि छत्तों पर अब भी,
नाचने आते हैं क्या मोर हमेशा की तरह ।

बेटियों से भी हमें आँख मिलाने की न ताब,
दिल में बैठा है कोई चोर हमेशा की तरह ।

कैसी घड़ियों में लड़ी प्रीति तुम्हारी ऐ किशन !
आज तक गीले हैं दृग-कोर हमेशा की तरह ।