Last modified on 12 अप्रैल 2018, at 16:24

गा मेरे कवि / रामेश्वरलाल खंडेलवाल 'तरुण'

गा, मेरे कवि!
थिरक उठे अग-जग में तेरी वीणा की झंकार मधुर, कवि!
गा, मेरे कवि!

जग का कण-कण हो ज्योतिर्मय,
हो प्रकाश में अन्धकार लय,
यह जगती होवे मंगलमय,
अणु-अणु की गति होवे मधुमय,
विचरें निर्भय जग-आँगन में जुगनू ग्रह-नक्षत्र, दीप, रवि!
गा, मेरे कवि!
साश्रु नयन की लिये आरती-
फैला मानस की ज्योति-श्री!
करुणा-जाल बिछा दे, जिसमें
फँस जावे रे, जगदीश्वर भी!
सुन कर तेरी करुण-रागिनी पिघल पड़े जड़, चेतन औ पवि!
गा, मेरे कवि!

कर दें शान्त जगत की ज्वाला
तेरे आँसू की दो बूँदें!
अरे तपस्वी, स्वर्ग बुला दे
पृथ्वी पर निज आँखें मूँदे!

झूम उठे त्रिभुवन सुन तेरे प्राणों का संगीत मधुर, कवि!
गा, मेरे कवि!
थिरक उठे अग-जग में तेरी वीणा की झंकार मधुर, कवि!
गा, मेरे कवि!