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गीतों में ही फूटता रहा हूँ मैं / रामगोपाल 'रुद्र'

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गीतों में ही फूटता रहा हूँ मैं,
गीतों में ही आगे भी खुलूँ, खिलूँ।

क्या थे वे दिन! जब ज्वार-जवानी थी!
लावण्य चाँद सँग रास रचाता था;
हँसते थे कमल, सकुचते भी जब थे,
मेरा रक्‍तार्णव फाग मचाता था।
जम गई तरलता ही प्रलयी हिम से;
अब चाहूँ भी तो मैं किस भाँति हिलूँ?

काँटों का मन, काँटों का तन, कैसे
क्या-क्या होकर गुजरा, जैसे-तैसे;
साँसों की फाँसों फाँसी चढ़-चढ़कर
मर-मरकर कौन ज़िया होगा ऐसे!
कवि होने से ही क्या यह दंड मिला?
भीतर सीझूँ, बाहर से कटूँ, छिलूँ?

मुझको संस्कृत कर दुख की दीक्षा से,
क्रमश: कुन्‍दन कर अग्निपरीक्षा से!
लाए हो इस आश्रम तक, तो स्वामी!
अच्युत कर दो, चिद्‍भाव-समीक्षा से;
रख लेना मुझको भी पद-आश्रय में;
परिव्रज्या पूरी कर जब पुन: मिलूँ।