विष्णुकान्त पाण्डेय : गीत अटपटे-बड़े चटपटे
लगभग 50 वर्षों पूर्व हिन्दी के बाल साहित्यकारों का एक बड़ा जमावड़ा उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में हुआ था। जमावड़ा शब्द का प्रयोग मैं इसलिए कर रहा हूँ कि तब बाल साहित्य भी जमने के लिए निरंतर प्रयत्नशील था, ऐसे में इस अधिवेशन को मुझे वास्तव में जमावड़ा कहना ही अधिक प्रासंगिक लगा। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि इसमें उन सभी बाल साहित्यकारों की विशेष रूप से उपस्थिति थी, जो आगे चलकर बालसाहित्य में मानक बने। कुछ नाम छूटने के डर से यहाँ नामोल्लेख करना उचित प्रतीत नहीं हो रहा है।
पूरे कार्यक्रम में लखनऊ के तत्कालीन बाल साहित्यकारों ने एक पाँव पर खड़े होकर जो सहयोग किया था, उसकी कल्पना से ही मन आह्लादित हो उठता है। जब मैं यह टिप्पणी लिख रहा हूँ तो उनमें से अधिकांश का स्मरण करते हुए मेरा माथा श्रद्धा से झुका जा रहा है, जो अब इस दुनिया में नहीं हैं। हुआ यह कि किसी को भी बाल साहित्य पर केन्द्रित ऐसे सफल अधिवेशन की न तो कल्पना थी, और न ही बालसाहित्य की गंभीरता को लेकर उठाए गए सवालों पर गम्भीर विमर्श की उम्मीद थी। यह अच्छा रहा कि आज बाल साहित्य के नाम पर चहलक़दमी करने वाले लोग तब तो इस क्षेत्र में आए ही नहीं थे। कुछ लोग ज़रूर दूर से ही तमाशा देख रहे थे।
इस पूरे कार्यक्रम को लेकर दिनमान में एक रिपोर्ट छपी —चमकदार अस्तबल : कमज़ोर घोड़े। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इस रिपोर्ट को जिसने लिखा था, वह कोई छोटा- मोटा साहित्यकार नहीं था, साहित्य जगत में उसके नाम की तूती बोलती थी। तीसरा सप्तक का वह कवि बालसाहित्य में भी बराबर की दखल रखता था। आगे चलकर उसने ’पराग’ जैसी बच्चों की प्रतिष्ठित पत्रिका का सम्पादन भी किया। उसका नाम था —-सर्वेश्वरदयाल सक्सेना , और वे ’दिनमान’ में नियमित चरचे और चरखे स्तंभ लिखा करते थे। (पाठक इस स्तंभ में छपी सामग्री सर्वेश्वरदयाल सक्सेना ग्रंथावली के भाग 8-9 में पढ़ सकते हैं)। इसके छपते ही पहले दबी जुबान से फिर मुखर रूप में हंगामा शुरू हो गया। मोतिहारी बिहार के साहित्यकार विष्णुकान्त पाण्डेय उस समय परिकल्पना पत्रिका निकालते थे। उन्होंने इसका मुख्य रूप से विरोध किया, तथा आगामी बाल साहित्य की कई संगोष्ठियों में भी यह चर्चा मुखर रही।
यह बात मैं इसलिए कह रहा हूँ कि मुझे विष्णुकान्त पाण्डेय की पाण्डुलिपि "बाल साहित्य विवेचन" पढ़ने को सन् 1982-83 में निरंकारदेव सेवक के घर पर बरेली में मिली थी। उस पाण्डुलिपि को बिहार सरकार ने पुरस्कृत भी किया था, मगर पाण्डुलिपि पुस्तक के रूप में कभी छप नहीं सकी। इसकी चर्चा मैंने सन् 1992 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ’हिन्दी बाल पत्रकारिता : उद्भव और विकास’ में किया है।
कुछ लोग विष्णुकान्त पाण्डेय को बाल साहित्य का दुर्वासा भी कहते थे, लेकिन सही अर्थों में वे दुर्वासा इसलिए थे कि उन्हें गलत बात किसी भी कीमत पर बर्दाश्त नहीं थी। उनके शिशुगीतों की खूब चोरी हुई है। ऐसे कई लेखकों पर उन्होंने कानूनी कार्रवाई भी की थी, वकील की नोटिस भिजवाई थी।
उ०प्र० हिन्दी संस्थान, लखनऊ के कार्यक्रम में जब वे लखनऊ आए थे, तो मेरी उनसे कई मुद्दों पर बात हुई थी। एक लेखक ने उनके शिशुगीतों की पूरी पुस्तक ही अपने नाम से छपवा ली थी। इसकी जानकारी मुझे थी। जब चर्चा चली तो वे आगबबूला हो गए थे। उनका गुस्सा जायज़ था। उन्हें पेसमेकर लगा था, इसलिए उन्हें ज़्यादा छेड़ना मैंने उचित नहीं समझा।
दरअसल, इस भूमिका की पीछे असली तथ्य यह था कि पहले विष्णुकान्त पाण्डेय की साहित्यिक रचनात्मकता, मान्यताओं और प्रवृत्तियों को समझ लिया जाए, फिर उनके शिशुगीतों पर चर्चा की जाए,ताकि पाठक समझ जाएँ कि वैसे साहित्यकार संवेदनशील होता है, मगर जब बात आत्मसम्मान की आ जाए तो फिर वह किसी भी कीमत पर समझौता नहीं करता है। ऐसे गुणी, आत्मसम्मानी और बाल साहित्य के लिए प्राणप्रण से लगे रहने वाले साहित्यकार विष्णुकान्त पाण्डेय ने वैसे तो बाल साहित्य की अनेक विधाओं में लेखन किया है, मगर उनके शिशुगीतों का कोई सानी नहीं है।
यह कहना बड़ा कठिन है कि हिन्दी का पहला शिशु गीत कौन सा है, परन्तु इतना निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि हिन्दी में शिशु गीतों का आरंभ स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व ही हो गया था और छठवें दशक तक आते-आते अनेक रोचक और महत्त्वपूर्ण शिशु गीत लिखे गए। शिशु गीतों को एक सफल मंच प्रदान करने का श्रेय बच्चों की सुप्रसिद्ध पत्रिका पराग को है। पराग में पूरे दो पृष्ठों में शिशु गीत आकर्षक साज-सज्जा के साथ प्रकाशित किए जाते थे। शिशुगीतों के सृजन और चयन के पीछे संपादक की अपनी गहरी सूझबूझ होती थी। संपादक आनंदप्रकाश जैन की यह टिप्पणी बड़ी महत्त्वपूर्ण है :--
“पिछले कई वर्षों से पराग में शिशुगीत छापे जा रहे हैं। इन शिशुगीतों के चयन में बड़ी सावधानी बरती जाती है क्योंकि शुद्ध शिशुगीत लिखना उतना आसान नहीं है जितना समझा जाता है। इसलिए अच्छे शिशु गीत बहुत कम लिखे जा रहे हैं। शिशुगीत ऐसे होने चाहिए कि इन्हें 4 से 6 साल तक के बच्चे आसानी से ज़बानी याद कर लें और अन्य भाषा-भाषी बच्चे और बड़े भी इनका आनंद ले सकें। इनसे मुहावरेदार हिन्दी सरलता से जु़बान पर चढ़ जाती है।”
– पराग : अक्टूबर 1996: पृष्ठ 52
शिशुगीतों के सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उसमें कुछ ऊलजलूलपन (नॉनसेंस) हो। उनकी यही विशेषता शिशुओं को अपनी ओर आकर्षित करती है। शिशु गीतों में एक और महत्त्वपूर्ण बात है-भाषा के चयन की, परंतु पराग के भूतपूर्व संपादक आनंदप्रकाश जैन कहते हैं —
शिशुगीतों की भाषा कोई भी हो, उनकी पहली शर्त यही है कि उनमें कुछ ऐसा अटपटापन हो जो बरबस ही गुदगुदाए, खास तौर पर बच्चों के सरल बोध को और उन बड़ों को भी ,जिनकी प्रवृत्ति बच्चों के समान हो।
वास्तव में अटपटे शिशुगीतों का अपना चटपटा संसार होता है। इतना तो तय है कि शिशुगीतों को बहुत शाश्वत बंधन में बाँधकर नहीं लिखा जा सकता है। अटपटेपन के साथ-साथ, खट्टे-मीठे चटपटेपन का स्वाद देने वाले शिशुगीतों की अपनी ही परिभाषा है और अपनी ही विशेषता। इनसे बच्चे बिना रोक-टोक के आनंद लें, यही शिशु गीतों का मूल-मंतव्य भी है।
हिन्दी में लगभग सभी बालसाहित्यकारों ने शिशुगीतों का सृजन किया है, परंतु जो बात विष्णुकान्त पाण्डेय जी के शिशुगीतों में है, वह बहुत कम बालसाहित्यकारों में देखने को मिलती है। उनके शिशु गीत नपे- तुले, सधे- बदे, मनोरंजक, अटपटे- चटपटे हैं उतने ही प्यारे- दुलारे और रंग-बिरंगे भी हैं। पांडेय जी के इन शिशुगीतों के सृजन का आरंभ अनायास ही हुआ। स्वयं विष्णुकान्त पाण्डेय जी के शब्दों में : —
”अक्कड़-बक्कड़-धक्कड़ धों,अथरी-पथरी तन तड़ाग, ओका-बोका तीन तड़ोका आदि अर्थहीन किन्तु शाश्वत लोकगीतों से उत्प्रेरित हो एक दिन पाँच तुकबंदियाँ जोड़ी और लजाते-लजाते उन्हें पराग के तत्कालीन यशस्वी संपादक आनंद प्रकाश जैन को भेज दिया। उत्तर में उनका लम्बा सा पत्र मिला —पाँचों रचनाएँ स्वीकृत, ऊपर से प्रशंसा, आगे भी लिखते रहने की प्रेरणा और इन गीतों से शिशुगीत स्तम्भ प्रारम्भ करने की उद्घोषणा। इसी प्रेरणा के वशीभूत मैंने प्रायः दो सौ से भी अधिक शिशुगीत लिखे, जो पराग के अतिरिक्त धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान तथा बाल-साहित्य की प्रायः सभी पत्रिकाओं और बाल स्तंभों में प्रकाशित होते रहे और लगभग एक दर्जन से ऊपर शिशु गीतों के संग्रह प्रकाशित हुए। उत्तर प्रदेश शासन और उ० प्र० हिन्दी संस्थान ने शिशुगीत संग्रहों को पुरस्कृत तथा मुझे सम्मानित किया।।”
इस प्रकार विष्णुकान्त पाण्डेय जी की शिशुगीतों की यात्रा प्रारम्भ हुई जो अनवरत लम्बे समय तक चलती रही। उस समय से आरम्भ हुई शिशुगीतों की यात्रा को पराग ने ऐसी गति दी, कि पूरा लंबा इतिहास बन गया। इसमें लगातार मानक बनते चले गए। आज हिन्दी के शिशुगीतों को अगर दूसरी भाषाओं के शिशुगीतों की तुलना में देखें तो परिमाण और परिणाम दोनों दृष्टियों से ये भारी पड़ेंगे। हिन्दी मे ऐसे सैकड़ों शिशुगीतों का होना हमें आश्वस्त करता है कि हमारी विरासत इतनी मजबूत है कि उस पर सहज ही गर्व किया जा सकता है।
विष्णुकान्त पाण्डेय जी के शिशुगीतों में ऐसा आकर्षण और मनोरंजन का तत्त्व है कि उसे पढ़ते ही चेहरे पर हँसी तैर जाती है। एक ऐसा ही शिशुगीत देखिए जो पाँच दशक बाद भी उतना ही तरोताजा है, जितना उस समय था, जब वह लिखा गया था :--
फोन उठाकर कुत्ता बोला—-सुनिए थानेदार।
घर में चोर घुसे हैं, बाहर सोया पहरेदार।
मेरे मालिक डर के मारे, छिप बैठे चुपचाप।
मुझको भी अब डर लगता है, जल्दी आएँ आप।
ऐसे शिशुगीत बच्चों द्वारा खूब पसंद किए जाते हैं। मैंने अपनी हिन्दी कार्यशालाओं में अध्यापक/अध्यापिकाओं के बीच में भी इस शिशुगीत को उद्धृत किया तो उनके चेहरे पर भी हँसी फूट पड़ी। कई ने इसे नोट किया कि वे अपनी कक्षाओं में इसे बच्चों कै अवश्य सुनाएँगे/सुनाएँगी। शिशुगीतों में हास्य चाशनी की तरह ही घुला रहता है। जैसे चाशनी में डूबे हुए रसगुल्ले का आनंद बच्चे चटकारे लेते हुए उठाते हैं, वैसे ही जिन शिशुगीतों में हास्य घुला होता है, उन्हें बच्चे बड़े प्रेम से गुनगुनाते हुए लोटपोट हो जाते हैं। पांडेय जी का एक ऐसा ही शिशुगीत देखिए :--
गदहे ने अख़बार उलटकर, नज़र एक दौड़ाई।
बोला – गाड़ी उलट गई है, ग़ज़ब हो गया भाई।
बन्दर हँसकर बोला – देखो, उलटा है अख़बार।
इसीलिए उलटी दिखती है, सीधी मोटरकार।
किसी बात को उल्टे ढंग से कहना भी शिशुगीतों की विशेषता का ही हिस्सा है। इस अर्थविपर्यय से जहाँ छोटे बच्चों में जिज्ञासा पैदा होती है, वहीं उनका भरपूर मनोरंजन भी होता है। अब आप कल्पना कीजिए- अगर चींटी हाथी को चाँटा मार दे और हाथी बिना किसी प्रतिक्रिया के सीधे माफी माँग ले, तो इस परिस्थिति में उपजा यह शिशुगीत बच्चों को तो अवश्य ही लहालोट कर देगा —
चींटी ने वह चाँटा मारा, गिरा उलटकर हाथी।
सरपट भागे गदहे-घोड़े, भागे सारे साथी।
धूल झाड़कर हाथी बोला - माफ करो हे रानी।
अब न कभी लड़ने आऊँगा, ज़रा पिला दो पानी।
चूहे और बिल्ली पर चाहे हिन्दी में हों या अंग्रेजी में सर्वाधिक शिशुगीत लिखे गए हैं। चूहे और बिल्ली के प्रसंग ही ऐसे हैं कि उनमें एक ओर शिशुओं की जिज्ञासा होती है तो दूसरी ओर विपरीत स्वभाव खतरे को भी आमंत्रण देते हैं। पहले अंग्रेज़ी का यह शिशुगीत देखिए :--
पूसी कैट - पूसी कैट ! ह्वेयर हैव यू बीन ?
आई हैव बीन टु लन्दन टु विजिट द क्वीन।
पूसी कैट - पूसी कैट, ह्वाट डिड यू देयर ?
आई फ़्राइटेण्ड ए लिटिल माउस अण्डर द चेअर।
तथ्य तो यह है कि बिल्ली सदैव चूहों को सताती रही है। बिल्ली से त्रस्त चूहे सदैव भागते-दौड़ते रहते हैं। चूहे और बिल्ली की भागदौड़ से ही उस कथा का जन्म हुआ है जिसमें बिल्ली के गले में घंटी बाँधने की बात आई है। बिल्ली के गले में घंटी बँधी रहने से जैसे ही आवाज़ आएगी, चूहे सतर्क हो जाएँगे। मौलिक उद्भावना को दर्शाता हुआ विष्णुकान्त पाण्डेय जी का यह शिशुगीत नन्हें -मुन्नों का भरपूर मनोरंजन करता है —
चूहे ने मौसी बिल्ली को, ऐसी डाँट पिलाई।
होश उड़े मौसी के, नानी उसे याद हो आई।
खिसियानी बिल्ली ने जाकर, कुत्ते को यों डाँटा।
हट जाओ आगे से वरना, जड़ दूँगी एक चाँटा।
चूहा और बिल्ली के ऐसे ही अनेक शिशुगीत विष्णुकान्त पाण्डेय जी के खाते में दर्ज़ हैं। उनके शिशुगीतों की कहन इतनी प्रभावशाली है कि सीधे मन में उतरती चली जाती है। बिल्ली जब चूहे से अपने को न सताने की प्रार्थना करती है तो अनायास ही हँसी छूट जाती है —
चूहे ने बिल्ली को भेजी, चिट्ठी एक जवाबी।
बोर करो घर तुम रख जाओ, मेरे बिल पर चाॅबी।
दिया जवाब तुरत बिल्ली ने, खुद चॉबी ले जाओ।
मैं अब बूढ़ी हुई, मुझे मत इतना अधिक बताओ।
शिशु गीतों में कभी-कभी बोलचाल की भाषा में बहुत महत्त्वपूर्ण बात भी कहीं जा सकती है। धोबी और गधे का रिश्ता बहुत पुराना है। गधे की स्वामिभक्ति पर किसी प्रकार सन्देश की गुंजाइश नहीं है। विष्णुकान्त पाण्डेय जी के निम्नलिखित शिशु गीत में अच्छा गाना गाने के बावजूद भी धोबी गधे की अपेक्षा करता है। ऊँट की गधे के प्रति सहानुभूति दर्शनीय है —
माइक कर आकर गदहे ने, चींपू - चींपू गाया।
भौं-भौं भौं कुत्ते ने उसमें, अपना राग मिलाया।
कहा ऊँट ने कितना अच्छा, गाता है तू गाना।
लेकिन बड़ा कठिन है,तेरे धोबी को समझाना।
विष्णुकान्त पाण्डेय जी की एक से एक लाजवाब शिशुगीतों की पुस्तकें हैं। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि उन्होंने बालगीतों का भी उसी तन्मयता से सृजन किया है। उनके बालगीतों पर अलग से चर्चा अपेक्षित है।