भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गीत 10 / ग्यारहवां अध्याय / अंगिका गीत गीता / विजेता मुद्‍गलपुरी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

संजय उवाच-

जैसें नदि के जल वहि-वहि सब-टा सागर में आवै छै।
वैसें जग के जीव कृष्ण के मुख में सहजे आवै छै।।

जैसें कीट-पतंग मोहवश ज्वलित अग्नि में आवै छै।
वैसे जग के जीव, कृष्ण के मुख में सहजे आवै छै।।

जैसे भक्षण करै जीव, जीभ से मुख के चाटै छै।
महाकाल विकराल बनी केॅ, तैसें सृष्टि उचाटै छै।।

जैसें सूर्य समस्त जगत के करै प्रकाश तपावै छै।
वैसें प्रज्ज्वलित मुख-ज्वाला से जग संतप्त बुझावै छै।

अर्जुन उवाच-

हे नारायण उग्र रूप वाला तोहें के छेकै।
तोरोॅ हय विकराल रूप देखी केॅ मोन डेरावै छै।।

हे देवोॅ में श्रेष्ठ कृष्ण हम तोरा नमन करै छी।
तजोॅ भयंकर रूप कृष्ण अब हमरोॅ मन घबरावै छै।।

तोर प्रकृति हे नारायण हम सब नै जानि सकै छी।
आदि पुरुष हे हम जानेॅ चाहै छी समझ न आवै छै।।