नै आसक्ति जगत से राखोॅ, नै तन के अभिमान
जग से मोह न ममता राखोॅ, जगवौ अन्तः ज्ञान।
जिनकर मन-चित सदा-निरंतर
परमेश्वर में लागै,
रहै ज्ञान में स्थिर मन
सब-टा विकार तब भागै
ऐसन मानव कर्म करै, नै हुऐ कर्म के भान।
यग ब्रह्म छिक, श्रुवा ब्रह्म छिक
हवन ब्रह्म छिक जानै,
यग के कर्ता किया ब्रह्म छिक
अग्नि ब्रह्म छिक मानै
यग पुरोहित ब्रह्म, यग-थल ब्रह्म, ब्रह्म यजमान।
यग क्रिया में लगल योगिजन
स्वतः ब्रह्म कहलावै
कुछ योगी जन विविध
देव पूजन के यग बतावै
कुछ योगी जन में अभेद-दर्शन के समझै मान
नै आसक्ति जगत से राखोॅ, नै तन के अभिमान