निन्दा-स्तुति के सम जानै
जैसें रहै, रहै आनन्दित, हरष-विषाद न मानै।
नै आसक्ति रखै घर से अरु नै परिजन-पुरजन से
मननशील, स्थिर चित वाला, मोह न राखै तन से
एक नाम हमरोॅ छोड़ी, खुद अपन नाम नै जानै
निन्दा-स्तुति के सम जानै।
जे मन बोलै, से मुख बोलै, भेद-भाव नै जानै
जपै सदा सतनाम निरन्तर, परमेश्वर के ध्यानै
वहेॅ प्रिय भगत छिक हमरोॅ, जे सतनाम बखानै
निन्दा-स्तुति के सम जानै।
मौन रही जे मनन करै, मुनि-भाव सहज ऊ पावै
मुख बोलै, मन कुछ नै बोलै, महामुनी कहलावै
छूटै भौतिक घर-दुआर सब, आपन घर जब जानै
निन्दा-स्तुति के सम जानै।
घर-दुआर-तन-विद्या-बुद्धि सब कुछ करै समर्पण
काम-क्रोध-मद-लोभ-मोह के, संयम में करि अर्पण
रहै सदा निरपेक्ष और अद्वैत रूप के मानै
निन्दा-स्तुति के सम जानै।
श्रद्धावन्त हमरोॅ भेॅ केॅ, जे हमरा सदा भजै छै
नै हम ओकरा कभी तजै छी, ऊ हमरा न तजै छै
करै पान धर्ममय अमृत, अटल प्रेम पहचानै
निन्दा-स्तुति के सम जानै।