भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
गीत 13 / तेसरोॅ अध्याय / अंगिका गीत गीता / विजेता मुद्गलपुरी
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:13, 14 जून 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विजेता मुद्गलपुरी |अनुवादक= |संग...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
इन्द्रिय के बलवान जानि लेॅ,
तन छिक रथ अरु मन छिक घोड़ा
बुद्धि केर कोचवान जानि लेॅ।
बुद्धिन से भी श्रेष्ठ आतमा, ईश्वर अंश कहावै
स्वाद रूप-रस-गंध-शब्द सब, देह प्रकृति से पावै
ई अव्यक्त-महतत्व प्रकृति से
जग के तोॅ निर्माण जानि लेॅ।
बुद्धिन से मन के बस करिलेॅ, इन्द्रिय पर जय पावोॅ
काम शत्रु के तों मारी इन्द्रिय जयी कहलावोॅ
काम रूप वैरी वर जब्बर
विस्तारै अज्ञान जानि लेॅ।
जे आतम स्वरूप पहचानै, जग में वहै बली छै
काम रूप शत्रु के वध से, बड़ उत्तम-यग की छै?
काम रूप शत्रु के मरतेॅ
सब जग कै कल्याण जानि लै
इन्द्रिय के बलवान जानि लै।