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गीत 14 / चौथा अध्याय / अंगिका गीत गीता / विजेता मुद्गलपुरी
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शिष्य अहिंसक व्रत नित धारै
करै सदा अध्ययन-चिंतन अरु ज्ञान यग स्वीकारै।
मन-बुद्धिमें सदविचार के हवन करै संन्यासी
सादर गुरुजन के घर पहुँचै, गाँव-नगर के वासी
प्रकटै अक्षर ब्रह्म तेॅ वरन-शब्द अरु अर्थ बिचारै
शिष्य अहिंसक व्रत नित धारै।
करै काक सन जतन, ध्यान बगुला के जैसन धारै
शयन स्वान सन, अरु भोजन इच्छा से कम स्वीकारै
ज्ञान यग के काल, न गृह के कारज कभी बिचारै
शिष्य अहिंसक व्रत नित धारै।
राग-द्वेष-अभिमान दोष के संयम में करि अर्पण
अन्तः के अज्ञान विनीत भें गुरु के करै समर्पण
बहुरै अन्तःज्ञान हृदय में, गुरु जब हेत बिचारै
शिष्य अहिंसक व्रत नित धारै।