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गीत 1 / प्रशान्त मिश्रा 'मन'

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थकी-थकी सी
देह कह रही अब सोना है।
कई दिनों से लड़ते-लड़ते हार गई मैं।
जीत गयी हैं साँसें मुझ से हार गई मैं।
धरती का हर कण-कण होता है विस्थापित।
देह जन्मती है सच पूछो होकर शापित।
सार-तत्व जब तक है भीतर ख़ुश रहना तुम-
जग को इस के विस्थापन से बस रोना है।
थकी-थकी सी देह...
कौन नियति को टाल सका है अपने मन से।
कब है पृथक कहो ! जन-जीवन घुर उलझन से।
जग में अपना आना जन ही तय करते हैं।
मानव बनकर जब-जब सब जीते-मरते हैं।
आते-आते खुद ही सबने भाग्य लिखा जब-
इसीलिए जो तय है होना, वो होना है।
थकी-थकी सी देह...
टूटेंगे ये उर बंधन सारे के सारे।
आएँगे जब किसी रोज़ घर में अँधियारे।
मैं तो समझ चुकी हूँ जग में इस जीवन को।
तुम्हें समझना बाक़ी है अब अपने मन को।
मुझ से मोह रखे हो लेकिन सत्य जान लो-
एक दिवस मुझको भी अपने को खोना है।
थकी-थकी सी देह...