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गीले आखर / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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मन्त्रविद्ध मैं
मन्त्रद्रष्टा ऋषि से
पढ़ते जाते
तुम मन के पन्ने।
जो मैंने सोचा,
पर कभी न कहा
जो दर्द सहा
जो सही बरसों से
दी अपनों ने
निर्मम बनकर
मूक व्यथाएँ
बढ़ गए थे आगे
भोलेपन से,
बाँचे तुमने सारे
गीले आखर।
मैं भेद नहीं जानूँ
इस सृष्टि के
पर तुमको जानूँ
मुझे छूकर
तुमने पढ़ डाली
सभी कथाएँ
मेरी मौन व्यथाएँ,
वे खींची सभी
दौड़ाती रही मुझे
जो -जो वल्गाएँ;
तुम जटा पाठ -से
रोम- रोम में
प्रणव बन छाए
सभी भ्रम मिटाए।