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गुंजित होता नाम तुम्हारा / नवीन कुमार सिंह

अन्तस् के भीतर बहती है जब तुम्हारे प्रेम की धारा
नस-नस में तब गुंजित होता, बरबस केवल नाम तुम्हारा
मन के पर्वत में छिप जाती हैं विवेक की बातें सारी
साँसों के आते जाते भी मैंने हरदम तुम्हें पुकारा

देख तुम्हें ऐसा लगता है, सृष्टि ने श्रृंगार किया है
जाड़े में सूरज की किरणों ने धरती से प्यार किया है
आँखें तुमको देखे जैसे सूर्यमुखी सूरज को ताके
तृप्त हुआ मन जैसे पपीहा तृप्त हुआ बरखा जल पाके
तेरे दो नैनों में मुझको मिल जाता संसार हमारा
अन्तस् के भीतर बहती है जब तेरी चाहत की धारा
नस-नस में तब गुंजित होता, बरबस केवल नाम तुम्हारा

गीतों की गगरी भर लाया हूँ, मैं तेरे स्नेह वचन से
भजता रहता तुझको हरदम, सूफियों के अनमोल भजन से
कई बार ये कोशिश की है, दूर कहीं पर मैं बस जाऊँ
पर जंगल, पर्वत, झरना हर जगह तुम्हारी छवि ही पाऊँ
जी करता तुझमें खो जाऊँ, ज्यों खोता अम्बर में तारा
अन्तस् के भीतर बहती है जब तेरी चाहत की धारा
नस-नस में तब गुंजित होता बरबस केवल नाम तुम्हारा