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गुमशुदा लम्हे / भावना शेखर

आज धूल झाड़कर खड़े हो गए
गुमशुदा से वो लम्हे,
जिन्हे बंद कर आई थी बरसों पहले
किसी राज़दार दस्तावेज़ की तरह
वक़्त की सलेटी संदूकची में,

मेरे गुनाह मेरी हिमाकतें
मेरे ऐब और नाशुक्री
सब बंधे थे
एक ही गिरह में कसकर।

न जाने कब
कोई मासूम लम्हा
शरीर बच्चे सा
खोल गया बंद किताब के पन्ने,

अब स्याह हर्फ़ों में
घूरते हैं मुझे
वही गुमशुदा लम्हे,
ऐतबार और बन्दगी के
मुखौटे के पार।

जिसे पहनकर स्वांग रचाया किया
उम्र भर