भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गुलज़ार की नज़्में / सिद्धेश्वर सिंह

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:59, 10 नवम्बर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सिद्धेश्वर सिंह |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैंने
गुलज़ार की नज़्मों को सारी रात जगाए रक्खा
और एक ख़ुशनुमा अहसास
मेरे इर्द-गिर्द चक्कर काटता रहा..।

संगतराशों के गाँव की मासूम हवा
मरमरी बुतों के पाँव पूजती रही
स्याह आँगन में
मोतियों की बारात उतरी थी
और हसीन मौसम का सारा दर्द
खिड़की के शीशों पर तैर आया था...।

इन सबके बावजूद
बन्द कमरे में
मैं था
मेरे सामने गुलज़ार की नज़्में थीं
और अँधियारे में उगता हुआ सूरज था....।