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गूंगी जहाज / लक्ष्मीकान्त मुकुल

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सर्दियों की सुबह में
जब साफ़ रहता था आसमान
हम कागज़ या पत्तों का जहाज बनाकर
उछालते थे हवा में
तभी दिखता था पश्चिमाकाश में
लोटा जैसा चमकता हुआ
कौतूहल जैसी दिखती थी वह गूंगी जहाज

बचपन में खेलते हुए हम सोचा करते
कहा जाती है परदेशी चिड़ियों की तरह उड़ती हुई
किधर होगा बया सरीखा उसका घोसला
क्या कबूतर की तरह कलाबाजियाँ करते
दाना चुगने उतरती होगी वह खेतों में
कि बाज की तरह झपट्टा मार फांसती होगी शिकार

भोरहरिया का उजास पसरा है धरती पर
तो भी सूर्य की किरणें छू रही हैं उसे
उस चमकीले खिलौने को
जो बढ़ रहा है ठीक हमारे सिर के ऊपर
बनाता हुआ पतले बादलों की राह
उभरती घनी लकीरें बढती जाती है
उसके साथ
जैसे मकड़ियाँ आगे बढती हुई
छोडती जाती है धागे से जालीदार घेरा
शहतूत की पत्तियाँ चूसते कीट
अपनी लार ग्रंथियों से छोड़ते जाते हैं
रेशम के धागे

चमकते आकाशीय खिलौने की तरह
गूंगी जहाज पश्चिम के सिवान से यात्रा करती हुई
छिप जाती है पूरब बरगद की फुनगियों में
बेआवाज तय करती हुई अपनी यात्रायें
पूरब से पश्चिम, उत्तर से दक्षिण निश्चित किनारों पर
पीछे-पीछे छोडती हुई
काले-उजले बादलों की अनगढ़ पगडंडियां


नोट – हमारे भोजपुरांचल में ऊंचाई पर उडता बेआवाज व गूंगा जहाज को लोगों द्वारा स्त्रीवाचक सूचक शब्द “गूंगी जहाज” कहा जाता है. इसलिए कवि ने पुलिंग के स्थान पर स्त्रीलिंग शब्द का प्रयोग किया है.