Last modified on 25 अक्टूबर 2017, at 18:05

गेलॉर्ड की एक शाम / रामनरेश पाठक

Anupama Pathak (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:05, 25 अक्टूबर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामनरेश पाठक |अनुवादक= |संग्रह=मै...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

विकल्प-जालों की अकृत्रिमा धुनें
चटख उट्ठी हैं
समाजवादी इन्द्रों के गुलाब-वन की
'निकटतम अवस्त्रा' अप्सरा कलिकाएँ.
वाल्ट्ज पर थिरकते हैं असहज पाँव
विवश तन्विता लहराती है
चुप रहो...इस्सस...!
उद्दाम आसव का सागर
क्षताओं की बहक
विलास घोलती है शिराओं में.
अनगिन रंग लिए मानसरोवर
मूर्च्छित होता जाता है.
अविराम एक संस्कृति
आसुरी खाल ओढ़ती चली जाती है.
विलास... विलास... विलास
एक ही गूंज है समस्त थिरक पर
बाहर... भीतर

स्तनों के कोरक-कोणक
बेतरतीब बहकी लटों की फहर
अधरों पर की कृत्रिम उन्मत्तता
एक खोखली शीशी का जहर पीती है
परंपराच्युति से अनांदोलित.
भीड़ से भय है किराए की राग-कन्याओं को
विनिमिता पत्नियों, प्रेयसियों को.
नीली कुहर चंचु में लिए
यक्ष, गंधर्व, किन्नर शिव नहीं बन पाते
कुहर अनुपयोगिता रह जाती है.

विस्मित, मूक कड़वा मुख लिए
गाइल्स विंटरबोर्न, गोबर हरती
पैसे चुका भाग आते हैं
मार्टीसाउथ, धनिया, झुनिया तो
सेवों के, महुएके पेड़ तले
विरह गीत में डूबी
कहीं
खड़ी होंगी
सभ्यता... से दूर
कहीं... बहुत दूर
डूबी कहीं खड़ी होंगी
प्रतीक्षरताएँ