भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
गैर भी समझो तो हर गम की दवा करते हैं / मोहम्मद इरशाद
Kavita Kosh से
आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:37, 15 अप्रैल 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= मोहम्मद इरशाद |संग्रह= ज़िन्दगी ख़ामोश कहाँ / म…)
गैर भी समझो तो हर गम की दवा करते हैं
करे मरने की सही पर वो दुआ करते है
चलो माना कि हमें जीना नहीं आता है
जीने वाले क्यूँ भला हम पे मरा करता है
एक पल में जो बदलते हैं रंगो-बू अपनी
ऐसे लोगों से तो हम यारों बचा करते हैं
राह में जब भी मिले हमसे बेरूख़ी से मिले
जाने फिर क्यूँ वो मेरे घर का पता करते है
अपनी फितरत से जो शैताँ को करदे शर्मिंदा
ऐसे इंसाँ भी क्या दुनिया में हुआ करते हैं
हमने ‘इरशाद’ बुजुर्गों से सुना है अक्सर
जैसी करते है लोग वैसी भरा करते हैं