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गोरा-बादल-युद्ध-यात्रा-खंड / मलिक मोहम्मद जायसी

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मुखपृष्ठ: पद्मावत / मलिक मोहम्मद जायसी

बादल केरि जसौवै माया । आइ गहेसि बादल कर पाया॥

बादल राय! मोर तुइ बारा । का जानसि कस होइ जुझारा॥

बादसाह पुहुमीपति राजा । सनमुख होइ न हमीरहि छाजा॥

छत्तिास लाख तुरय दर साजहिं । बीस सहस हस्ती रन गाजहिं॥

जबहीं आइ चढ़ै दल ठटा । दीखत जैसि गगन घन घटा॥

चमकहिं खड़ग जो बीजु समाना । घुमरहिं गलगाजहिं नीसाना॥

बरिसहिं सेल बान घनघोरा । धारज धार न बाँधिाहि तोरा॥

जहाँ दलपती दलि मरहिं, तहाँ तोर का काज।

आजु गवन तोर आवै, बैठि मानु सुख राज॥1॥


मातु! न जानसि बालक आदी । हौं बादला सिंह रनबादी॥

सुनि गजजूह अधिाक जिउ तपा । सिंघ क जाति रहै किमिछपा?॥

तौ लगि गाज न गाज सिंघेला । सौंह साह सौं जुरौं अकेला॥

को मोहिं सौंह होइ मैमंता । फारौं सूँड़, उखारौं दंता॥

जुरौं स्वामि सँकरे जस ढारा । पेलौं जस दुरजोधान भारा॥

अंगद कोपि पाँव जस राखा । टेकौं कटक छतीसौ लाखा॥

हनुवँत सरिस जंघ बर जोरौं । दहौं समुद्र, स्वामि बँदि छोरौं॥

सो तुम, मातु जसौवै। मोंहि न जानहु बार।

जहँ राजा बलि बाँधा छोरौं पैठि पतार॥2॥


बादल गवन जूझ कर साजा । तैसेहि गवन आइ घर बाजा॥

का बरनौं गवने कर चारू । चंद्रबदनि रुचि कीन्ह सिंगारू॥

माँग मोति भरि सेंदुर पूरा । बैठ मयूर, बाँक तस जूरा॥

भौंहैं धानुक टकोरि परीखे । काजर नैन, मार सर तीखे॥

घालि कचपची टीका सजा । तिलक जो देख ठाँव जिउ तजा॥

मनि कुंडल डोलैं दुइ òवना । सीस धाुनहिं सुनि सुनि पिउ गवना॥

नागिनि अलक, झलक उर हारू । भयउ सिंगार कंत बिनु भारू॥

गवन जो आवा पँवरि महँ, पिउ गवने परदेस।

सखी बुझावहिं किमि अनल, बुझै सो केहि उपदेस?॥3॥


मानि गवन सो घूँघुट काढ़ी । बिनवै आइ बार भइ ठाढ़ी॥

तीखे हेरि चीर गहि ओढ़ा । कंत न हेर, कीन्हि जिउ पोढ़ा॥

तब धानि बिहँसि कीन्ह सहुँ दीठी । बादल ओहि दीन्हि फिरिपीठी॥

मुख फिराइ मन अपने रीसा । चलत न तिरिया कर मुख दीसा॥

भा मिन मेष नारि के लेखे । कस पिउ पीठि दीन्हि मोहिं देखे॥

मकु पिउ दिस्टि समानेउसालू । हुलसी पीठि कढ़ावौं फालू॥

कुच तूँबी अब पीठि गड़ोवौं । गहै जो हूकि, गाढ़ रस धाोवौं॥

रहौं लजाइ त पिउ चलै, गहौं त कह मोहिं ढीठ।

ठाढ़ि तेवानि कि का करौं, दूभर दुऔ बईठ॥4॥


लाज किए जौ पिउ नहिं पाबौं । तजौं लाज कर जोरि मनावौं॥

करि हठ कंत जाइ जेहि लाजा । घूँघुट लाज आवा केहि काजा॥

तब धानि बिहँसि कहा गहि फेंटा । नारि जो बिनबै कंत न मेटा॥

आजु गवन हौं आई नाहाँ । तुम न, कंत! गवनहु रन माहाँ॥

गवन आव धानि मिलै के ताईं । कौन गवन जौ बिछुरै साईं॥

धानि न नैन भरि देखा पीऊ । पिउ न मिला धानि सौं भरि जीऊ॥

जहँ अस आस भरा है केवा । भँवर न तजै बास रसलेवा॥

पायँन्ह धारा लिलाट धानि, बिनय सुनहु, हो राय!।

अलकपरी फँदवार होइ, कैसेहु तजै न पाय॥5॥


छाँड़घ फेंट धानि! बादल कहा । पुरुष गवन धानि फेंट न गहा॥

जो तुइ गवन आइ, गजगामी । गवन मोर जहँवा मोर स्वामी॥

जौ लगि राजा छूटि न आवा । भावै बीर, सिंगार न भावा॥

तिरिया भूमि खड़ग कै चेरी । जीत जो खड़ग होइ तेहि केरी॥

जेहि घर खड़ग मोंछ तेहिं गाढ़ी । जहाँ न खड़ग मोंछ नहिं दाढ़ी॥

तब मुँह मोछ, जीउ पर खेलौं । स्वामि काज इंद्रासन पेलौं॥

पुरुष बोलि कै टरै न पाछू । दसन गयंद, गीउ नहिं काछू॥

तुइ अबला धानि! कुबुधिा बुधिा, जानै काह जुझार।

जेहि पुरुषहि हिय बीररस, भावै तेहि न सिंगार॥6॥


जौ तुम चहहु जूझि, पिउ! बाजा । कीन्ह सिंगार जूझ मैं साजा॥

जोबन आइ सौंह होइ रोपा । बिखरा बिरह, काम दल कोपा॥

बहेउ बीररस सेंदुर माँगा । राता रुहिर खड़ग जस नाँगा॥

भौंहैं धानुक नैन सर साधो । काजर पनच, बरुनि बिष बाँधो॥

जनु कटाछ स्यों सान सँवारे । नखसिख बान सेल अनियारे॥

अलक फाँस गिउ मेल असूझा । अधार अधार सौं चाहहिं जूझा॥

कुंभस्थल कुच दोउ मैमंता । पेलौं सौंह, सँभारहु, कंता?॥

कोप सिंगार, बिरह दल, टूटि होइ दुइ आधा।

पहिले मोहिं संग्राम कै, करहु जूझ कै साधा॥7॥


एकौ बिनति न मानै नाहाँ । आगि परी चित उर धानि माहाँ॥

उठा जो धाूम नैन करवाने । लागे परै ऑंसु झहराने॥

भीजै हार, चीर हिय चोली । रही अछूत कंत नहिं खोली॥

भीजी अलक छुए कटि मंडन । भीजे कँवल भँवर सिर फुंदन॥

चुइ चुइ काजर ऑंचर भीजा । तबहुँ न पिउ कर रोवँ पसीजा॥

जौ तुम कंत! जूझ जिउ कांधा । तुम किय साहस, मैं सत बाँधा1॥

रन संग्राम जूझि जिति आवहु । लाज होइ जौ पीठि देखावहु॥

तुम्ह पिउ साहस बाँधा, मैं दिय माँग सेंदूर।

दोउ सँभारे होइ सँग, बाजै मादर तूर॥8॥


(1) जसौवै=यह 'यशोदा' शब्द का प्राकृत या अप्रभंश रूप है। पाया=पैर। जुझारा=युध्द। ठटा=समूह बाँधाकर।

(2) आदी=नितांत, बिलकुल। सिंघेला=सिंह का बच्चा। मैमंता=मस्त हाथी। स्वामि सँकरे=स्वामी के संकट के समय में। जस ढारा=ढाल के समान होकर। पेलौं=जोर से चलाऊँ। भारा=भाला। टेकौं=रोक लूँ। जंघ बर जोरौं=जाँघों में बल लाऊँ। बार=बालक।

(3) जूझ=युध्द। गवन=वधाू का प्रथम प्रवेश। चारू=रीति-व्यवहार। बाँक=बाँका, सुंदर। जूरा=बँधाी हुई चोटी का गुच्छा। टकोरि=टंकार देकर। परीखे=परीक्षा की, आजमाया। घालि=डालकर, लगाकर। कचपची=कृत्तिाका नक्षत्रा; यहाँ चमकी।

(4) बार=द्वार। हेर=ताकता है। पोढ़ा=कड़ा। मिन मेष=आगा पीछा, सोच-विचार। मकु...सालू=शायद मेरी तीखी दृष्टि का साल उसके हृदय में पैठ गया है। हुलसी...फालू=वह साल पीठ की ओर हुलसकर जा निकला है इससे मैं वह गड़ा हुआ तीर का फल निकलवा दूँ। कूच तूँबी...गड़ोवौं=जैसे धाँसे हुए काँटे आदि को तूँबी लगाकर निकालते हैं वैसे ही अपनी कुचरूपी तुंबी जरा पीठ से लगाऊँ। गहै जौ...धाोवौं=पीड़ा से चौंककर जब वह मुझे पकड़े तब मैं गाढ़े रस से उसे धाो डालूँ अर्थात् रसमग्न कर दूँ। तेवानि=चिंता में पड़ी हुई। दुऔ=दोनों बातें।


(5) मिलै के ताईं=मिलने के लिए। फँदवार=फंदा।

(6) पुरुष गवन=पुरुष के चलते समय। बीर=वीर रस। मोंछ=मूँछें। दसन गयंद...काछू=वह हाथी के दाँत के समान है (जो निकलकर पीछे नहीं जाते), कछुए की गर्दन के समान नहीं, जो जरा सी आहट पाकर पीछे घुस जाता है।

(7) बाजा चहहु=लड़ना चाहते हो। पनच=धानुष की डोरी। अनियारे=नुकीले, तीखे। कोप=कोपा है। मोहिं=मुझसे।

(8) चित उर=(क) मन और हृदय में, (ख) चित्ताौर। आगि परी माहाँ=इस पंक्ति में कवि ने आगे चलकर चित्ताौर की स्त्रिायों के सती होने का संकेत भी किया है। करुवाने=कड़वे धाुएँ से दुखने लगे। कटिमंडन=करधानी। फुंदन=चोटी का फुलरा।

1. कई प्रतियों में यह पाठ है-

छाँडि चला, हिरदय देइ दाहू । निठुर नाह आपन नहिं काहू॥

सबै सिंगार भीजिभुइँ चूवा । छार मिलाइ कंत नहि छूवा॥

रोए कंत न बहुरै, तेहि रोए का काज?

कंत धारा मन जूझ रन, धानि साजा सर साज॥