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गोरेपन की क्रीम / प्रमोद कुमार

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हज़ारों शास्त्र नहीं कर पाते
            कानून करता तो विद्रोह हो जाता
ख़ूब बोलते बुद्धिजीवी विरोध में

छोटी-सी गोरेपन की एक क्रीम
चुपचाप
                  गोरी औरतों को दिखा दी
उनमें सबसे बड़ी सुन्दरता
उन्हें बाँध दी
उनकी दृश्य सम्पदा की रखवाली में

हितैषी बन
साँवली औरतों को बताई
योग्यता से भी बड़ी
अनिवार्य पात्रता का महत्व,
              उन्हें प्रेमपूर्वक
              हर साक्षात्कार में
वह लीक-आउट कर थमा देती है
पूछा जानेवाला वह प्रश्न
जिसका उत्तर ढू़ँढने में
वह चली जाती हैं प्रतियोगिता से बाहर

साँवली पत्नियाँ शायद ही माँगें
           मर्दों की मनमानी पर तलाक
           वे पतिव्रता बन सहर्ष
चुन लेती हैं परित्यकता-सा कठिन जीवन

निर्माण में लगीं औरतें बाहर हों
या घरों में
वे कम दाम, छोटे मन पर
किसी अपराघ में खटती हैं
इसके चमकते विज्ञापन में

विज्ञानी कहते रहें
कि वह चमड़ी के रंग पर असर नहीं करती
लेकिन, इसे प्रयोग करते-करते
औरतें स्वीकार कर रहीं
इसके बनाए भविष्य को

नयी वर्ण-व्यवस्था की यह स्वीकृति
बाज़ार से आ रही घर में ।