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ग्यारहवीं किरण / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

जागो रे जागो नवल प्रात है आया।
ऊषा ने भर-भर थाल स्वर्ण बिखराया॥

सोई कलियों ने आँख उनींदी खोली,
भ्रमरावलियाँ गुन-गुन गुन-गुन कर बोलीं;
वीणा ने मीठा राग भैरवी गाया॥1॥

मृदु मन्द समीरण सर-सर-सर बहता है,
सरिता का जल कल-कल छल-छल करता है;
तरु-डाल-डाल पर विहग-बाल ने गाया॥2॥

दिनकर की किरणें उतर-उतर कर आईं,
सन्देश जागरण का अवनी पर लाईं;
निशि खिसक गई अपनी समेट कर माया॥3॥

तृण-तृण कण-कण है जागरूक जगती का,
झल-मल झल-मल अंचल करता धरती का;
रवि ने हँस हीरक हार उसे पहनाया॥4॥