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"ग्राम दृष्टि / सुमित्रानंदन पंत" के अवतरणों में अंतर

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देख रहा हूँ आज विश्व को ग्रामीण नयन से   
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देख रहा हूँ आज विश्व को मैं ग्रामीण नयन से,  
सोच रहा हूँ जटिल जगत पर, जीवन पर जन मन से ! 
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सोच रहा हूँ जटिल जगत पर, जीवन पर जन मन से।
 
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ज्ञान नहीं है, तर्क नहीं है, कला न भाव विवेचन,   
 
ज्ञान नहीं है, तर्क नहीं है, कला न भाव विवेचन,   
जन हैं जग है, क्षुधा, काम, इच्छाएँ जीवन साधन ! 
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जन हैं, जग है, क्षुधा, काम, इच्छाएँ जीवन साधन।
 
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रूप जगत है, रूप दृष्टि है, रूप बोधमय है मन,   
रूप जगत् है, रूप दृष्टि है, रूप बोधमय है मन,   
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माता पिता, बंधु बांधव, परिजन, पुरजन, भू गो धन।   
माता पिता बंधु, बांधव, परिजन पुरजन भू गो धन।   
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रूढ़ि रीतियों के प्रचलित पथ, जाति पाँति के बंधन,   
 
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नियत कर्म हैं, नियत कर्म फल,--जीवन चक्र सनातन।  
रूढ़ि रीतियों के प्रचलित पथ, जाति पाँचि के बंधन,   
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जन्म मरण के, सुख दुख के ताने बानों का जीवन,   
नियत कर्म हैं, नियत कर्म फल-जीवन चक्र सनातन !  
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निठुर नियति के धूपछाँह जग का रहस्य है गोपन!   
 
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जन्म मरण के सुख दुख के ताने बानों का जीवन,   
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निठुर नियति के धूपछाँह जग का रहस्य है गोपन !   
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देख रहा हूँ निखिल विश्व को मैं ग्रामीण नयन से,   
 
देख रहा हूँ निखिल विश्व को मैं ग्रामीण नयन से,   
सोच रहा हूँ जग पर, मानव जीवन पर जन मन से ! 
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सोच रहा हूँ जग पर, मानव जीवन पर जन मन से।
 
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रूढ़ि नहीं है, रीति नहीं है, जाति वर्ण केवल भ्रम,   
 
रूढ़ि नहीं है, रीति नहीं है, जाति वर्ण केवल भ्रम,   
जन जन में है जीव, जीव-जीवन में सब जन हैं सम !  
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जन जन में है जीव, जीव जीवन में सब जन हैं सम।  
 
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ज्ञान वृथा है, तर्क वृथा, संस्कृतियाँ व्यर्थ पुरातन,   
 
ज्ञान वृथा है, तर्क वृथा, संस्कृतियाँ व्यर्थ पुरातन,   
प्रथम जीव है मानव में, पीछे है सामाजिक जन ! 
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प्रथम जीव है मानव में, पीछे है सामाजिक जन।
 
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मनुष्यत्व के मान वृथा, विज्ञान वृथा रे दर्शन,   
 
मनुष्यत्व के मान वृथा, विज्ञान वृथा रे दर्शन,   
वृथा धर्म, गणतंत्र-उन्हें यदि प्रिय न जाव जन जीवन !  
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वृथा धर्म, गण तंत्र,--उन्हें यदि प्रिय न जीव जन जीवन!
 
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20:43, 26 अप्रैल 2010 का अवतरण

देख रहा हूँ आज विश्व को मैं ग्रामीण नयन से,
सोच रहा हूँ जटिल जगत पर, जीवन पर जन मन से।
ज्ञान नहीं है, तर्क नहीं है, कला न भाव विवेचन,
जन हैं, जग है, क्षुधा, काम, इच्छाएँ जीवन साधन।
रूप जगत है, रूप दृष्टि है, रूप बोधमय है मन,
माता पिता, बंधु बांधव, परिजन, पुरजन, भू गो धन।
रूढ़ि रीतियों के प्रचलित पथ, जाति पाँति के बंधन,
नियत कर्म हैं, नियत कर्म फल,--जीवन चक्र सनातन।
जन्म मरण के, सुख दुख के ताने बानों का जीवन,
निठुर नियति के धूपछाँह जग का रहस्य है गोपन!

देख रहा हूँ निखिल विश्व को मैं ग्रामीण नयन से,
सोच रहा हूँ जग पर, मानव जीवन पर जन मन से।
रूढ़ि नहीं है, रीति नहीं है, जाति वर्ण केवल भ्रम,
जन जन में है जीव, जीव जीवन में सब जन हैं सम।
ज्ञान वृथा है, तर्क वृथा, संस्कृतियाँ व्यर्थ पुरातन,
प्रथम जीव है मानव में, पीछे है सामाजिक जन।
मनुष्यत्व के मान वृथा, विज्ञान वृथा रे दर्शन,
वृथा धर्म, गण तंत्र,--उन्हें यदि प्रिय न जीव जन जीवन!