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घटता नहीँ मगर / ओम पुरोहित ‘कागद’

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जो घटा
वह चाहत नहीँ थी
जगत मेँ किसी की
... चाहत तो हमेशा
अघटित ही रही !

मैँने चाहा
खिले फूल
बंजर मेँ
बरसे पानी
मरुधर मेँ
नदियां आ जाएं
बह कर खेतोँ मेँ
शब्दोँ को मिल जाएं
निहित अर्थ
हाथ को मिल जाए
हाथ किसी का
अपना सा
स्पर्श मेँ अनुभूतियां
तैरने लगें मछलियोँ सी
याद आने पर
आ जाए अगले ही पल
वांछित दिल का
कोई अपना सा
लगने वाला
हो ही जाए अपना !

घटता नहीँ मगर
घटता जाता है विश्वास !