भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

घटाएँ / महेन्द्र भटनागर

Kavita Kosh से
198.190.230.62 (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 00:20, 29 अगस्त 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=महेन्द्र भटनागर |संग्रह= अंतराल / महेन्द्र भटनागर }} <poem> ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


छा गये सारे गगन पर
नव घने घन मिल मनोहर,
दे रहे हैं त्रास्त भू को
आज तो शत-शत दुआएँ !
देख लो, कितनी अँधेरी हैं घटाएँ !

कर रहा है व्योम गर्जन
मंद्र ध्वनि से, वाद्य-सा बन,
चाहता देना सुना जो
आज सारी स्वर-कलाएँ !
देख लो, ये व्योम-चेरी हैं घटाएँ !

अरुक बरसो बिन्दु जल के
तीव्र गति से, ना कि हलके,
विश्व भर में वृष्टि कर दो
दूर हों सारी बलाएँ !
देख लो, कितनी घनेरी हैं घटाएँ !
1949