Last modified on 22 जून 2010, at 11:42

घटाएं बख्शीश देती हैं / मनोज श्रीवास्तव

घटाएं बख्शीश देती हैं

घटाएं बख्शीश देती हैं
रेत और राख जी रहे लोग
घिघिया-रिरिया कर
बख्शीश लेते हैं

घटाएं चन्द्र-कटोरे से
भिनसारे पौ फटते ही
बूंदों की अशर्फियां
उड़ेल देती हैं--
चिता-आसीन जनों पर

अशर्फियों की शीतल दमक
आँखों के रास्ते
झुराई-कठुआई हड्दियों में
नरम जान भर देती हैं

घटा-मांएं आशीष देती हैं
सूर्य के आग्नेयास्त्रों से
आहत बच्चों पर
दुआओं के आंसू फुहेर देती हैं--
छलछला कर, पुचकार कर
दादुरी गुनगुन में लोरियाँ भर
मीठी नीद सुला देती हैं ,
इन्द्रधनुषीय तितलियाँ भेज
उमसती-उबसती जिन्दगी में
रंग-उमंग भर देती हैं

घटा-बालाएं
बूँद-केशों से
विषाद-अवसाद बुहार
कोयली कुक, झींगुरी झन्-झन् से
आयु-मार्ग पर
थके-हारे मन पर
चपलता उबेट देती हैं,
कुहरे वाले हाथों से
युगों की आसक्ति समेट
शून्य हुए मन में भर देती हैं

घटाएं बख्शीश देती हैं
घटाएं आशीष देती हैं.