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घने बरगद थे लोहिया / लक्ष्मीकान्त मुकुल

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झाड-झंखाड़ नहीं, घने बरगद थे लोहिया
जिसकी शाखाओं में झूलती थी समाजवाद की पत्तियां
बाएं बाजू की डूलती टहनियों से
गूंजते थे निःशब्द स्वर
‘दाम बांधो, काम दो,
सबने मिलकर बाँधी गाँठ,
पिछड़े पाँवें सौ में साठ’
दायें बाजू की थिरकती टहनियों से
गूंजती थी सधी आवाज़
‘हर हाथ को काम, हर खेत को पानी’
बराबरी, भाईचारा के उनके सन्देश
धुर देहात तक ले जाती थीं हवाएं दसों दिशाओं से
सामंतवाद, पूंजीवाद की तपती दुपहरी में
दलित, गरीब, मजदूर-किसान
ठंढक पाते थे उसकी सघन छाँव में
 
बुद्धीजीवियों के सच्चे गुरु
औरतों के सच्चे हमदर्द
भूमिहीनों के लिए फ़रिश्ता थे लोहिया
बरोह की तरह लटकती आकांक्षाओं में
सबकी पूरी होती थी उम्मीदें

अपराजेय योद्धा की तरह अडिग
लोहिया की आवाज़ गूंजती थी संसद में
असमानता के विरुद्ध
तेज़ कदम चलते थे प्रतिरोध में मशाल लिए
उनकी कलम से उभरती थी तीखी रोशनी
चश्मे के भीतर से झांकती
उनकी आँखें टटोल लेती थीं
देश के अन्धेरेपन का हरेक कोना