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घर की चौखट से बाहर / सुशीला टाकभौरे

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दरवाज़े के पीछे
परदे की ओट से
झाँकती औरत
दरवाज़े से बाहर देखती है
गली-मोहल्ला शहर संसार

आँख, कान, विचार स्वतन्त्र हैं
बन्धन हैं सिर्फ़ पाँव में
कुल की लाज
सीमाओं का दायरा
घर की चौखट तक
मायका हो या ससुराल
दरवाज़े के पीछे
परदे की ओट से
वह देखती है संसार
समझने लगी है सब
फिर भी है चुप
हिलाकर हाथ अपने
स्वयं पकड़ लेती है बन्धन
जकड़े रहने देती है पाँव

अब
आने वाली पीढ़ियों को
बचाना होगा।
रास्ता देना होगा—
आगे बढ़कर
घर की चौखट से बाहर निकलना होगा!