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घर से बाहर / चंद्रभूषण

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कभी कोई नल टपकता है
कभी कोई कब्जा झूल जाता है
एक भी दिन ऐसा नहीं गुज़रता
जब घर मुझे तंग नहीं करता

न एक भी रात
जब घर के सपने नहीं आते

नमक खाई ईंटों वाला
सीलन भरी गंध से गंधाता
अधगर्म बिस्तरों वाला घर
जो जितनी राहत देता है
उससे ज़्यादा डर
मन में बिठाए रहता है

अब से बीस साल पहले
जब घर के बारे में
पहली बार कुछ कहा था
तब एक वैचारिक साथी ने
टोकना ज़रूरी समझा-

यह लिखने से पहले
वे करोड़ों इंसानी शक़्लें
तुम्हारे सामने क्यों नहीं आईं
जिन्हें छत कभी नसीब ही नहीं हुई

मुझे तब भी लगता था
और अब भी लगता है,
उन्हें देखने का जतन क्या करूँ
जब मैं उन्हीं में से एक हूँ

सिर पर छत कभी होती है
कभी नहीं होती
लेकिन उसके गिर पड़ने या
उड़ जाने का खौफ़ हमेशा होता है

जनम लेने के बाद से आज तक
मैं घर से ही जूझ रहा हूँ
कम से कम अपने सपनों में तो
मुझे इससे आज़ाद रहना चाहिए ।