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घर हमारा जो न रोते भी तो वीरां होता / ग़ालिब

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घर हमारा जो न रोते भी तो वीरां<ref>बरबाद</ref> होता
बहर<ref>समुद्र</ref> गर बहर न होता तो बयाबां<ref>उज़ाड़,रेगिस्तान</ref> होता

तंगी-ए-दिल का गिला क्या ये वो काफ़िर दिल है
कि अगर तंग न होता, तो परेशां होता

बादे-यक उम्र-वराअ<ref>उम्र भर के संयम का बाद</ref> बार<ref>प्रवेश-आज्ञा</ref> तो देता बारे<ref>ज़रूर</ref>
काश, रिज़्वां<ref>स्वर्ग का दरबान</ref> ही दर-ए-यार का दरबां होता

न था कुछ तो ख़ुदा था, कुछ न होता तो ख़ुदा होता
डुबोया मुझको होने ने, न होता मैं तो क्या होता!

हुआ जब ग़म से यूँ बेहिस<ref>हैरान</ref> तो ग़म क्या सर के कटने का ?
न होता गर जुदा तन से तो ज़ानूं<ref>घुटनों</ref> पर धरा होता

हुई मुद्दत के 'ग़ालिब' मर गया पर याद आता है
वो हर इक बात पर कहना, कि यों होता तो क्या होता?

शब्दार्थ
<references/>