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घर / कुमारेन्द्र सिंह सेंगर

घर,
महज एक ढांचा नहीं,
एक भरा-पूरा संसार है,
एक छोटा सा घरौंदा है,
हमारे प्यार का।
हमारे आपसी विश्वास का।
घर की छत और दीवारों पर
हमने देखे हैं
अपने पुरखों की
भावनाओं, महत्वाकांक्षाओं के छाप।
इसकी एक-एक ईंट,
एक-एक कोने पर
हमने महसूस किया है
उनका होना
जो आज न होने पर भी
मौजूद हैं किसी न किसी रूप में
साथ हमारे।
जिन्हों ने हमारे
भूत, भविष्य और वर्तमान को
संवारा है।
दरवाजे की चौखट पर खडी
उनकी अप्रत्यक्ष भावनाएं
तथा हमारे लिए उनका आशीष
हमें बचाता है
समाज के कलुषित विचारों से,
बचाता है हमारी इज्जत को
सड़क पर टहलती,
घरों में झांकती आवारा नजरों से।
लेकिन फ़िर हवा बदली,
गति बदली, हर मान्यता बदली,
सपने टूटे, रिश्ते टूटे,
बिखर गया
घर-परिवार के नाम पर बुना सपना।
जो घर कभी हमारे निराश-हताश होने पर
हमें देता था सहारा,
कभी खुशियों में मन बहलाता था हमारा
आज उस घर की
बदल गई है परिभाषा,
मिट चुकी है उससे परिवार, अपनत्व की भावना।
आ गई गाँठ
आपसी विश्वास के स्नेहमयी सूत्र में,
ठंडी हो गई रिश्तों की उष्णता।
घर,
अब बन गया है एक ढांचा,
एक खांचा,
अपने आप में सिमटे रहने का,
अपने ही लहू को बाँट कर
बहाते रहने का।
याद है अभी तक मुझे
अपने आँगन में वो धुप में खेलना,
नीम की मीठी छाँव तले,
सावन की फुहारों के साथ ही
गगन छूने को झूलों के संग उड़ जाना।
अभी भी वे यादें इस घर के आँगन की,
जिसके कोने में कभी बनाए थे हमने
मिट्टी के सपनीले घर,
कभी जलाया था एक चूल्हा,
कभी पकाया था ख्यालों में खाना।
तब कितना विशाल और
ख़ुद से जुड़ा लगता था
घर आँगन का हर एक कोना,
पर आज
कितना तन्हा खड़ा हूँ में
बीच में खिंची दीवार के इस पार,
दबी हैं, सिसकतीं हैं
अधूरी यादें कहीं उस पार।
फ़िर एक हूक सी उठती है मन में
नीम की छाँव को छूने की,
अपने बचपन के,
सपनों में बनाए घरों को देखने की,
लेकिन दीवार घर के आँगन की,
दीवार रिश्तों में आई नफरत और स्वार्थ की,
रोकती है मुझे जाने को उस पार।
दीवार के उस पार
तन्हा खड़े नीम के पेड़ सा मैं भी
इस ओर तन्हा खडा हूँ।
बस यादों को महसूस करता हूँ,
दिल ही दिल में रोता हूँ,
अपनत्व, स्नेह, आशीष भरे घर-परिवार को,
ईंट, पत्थर का घर
महज एक ढांचा बने देखता हूँ।