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घर : छह कविताएँ / अमिताभ बच्चन

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1.

उन्होंने बेईमानी से कुछ पैसे कमाए
ज़मीन का एक टुकड़ा ख़रीदा
कुछ और बेईमानियाँ की
एक घर बनाया
कुछ और बेईमानियाँ की
घर को रहने लायक बनाया
तक़दीर ने साथ दिया
बड़ी बेईमानी के कुछ और मौक़े निकल आए
पुराना घर गिरा दिया
नए में हाथ लगाया
वे कुछ नई बेईमानियाँ कर रहे हैं
उनका नया घर खड़ा हो रहा है

2.

वे बेसहारा बेघरों के लिए काम करते हैं
इसके उन्हें कुछ वाजिब पैसे मिलते हैं
कुछ वे बेघरों के पैसे चुराते हैं
इस तरह चोरी से
अपना घर बनाते हैं

3.

जिसका कोई न हो
उसका ज़रूर एक घर हो
घर ही उसका ख़ुदा हो
न आए कोई उसके घर
न जाए वह कहीं घर छोड़कर
मगर हो ज़रूर उसका एक घर

4.

हमारे पास घर था
मगर वह अपना नहीं था
घर हमारे लिए सपना भी नहीं था
हमारे पास घर ख़रीदने के पैसे थे
हमारे लिए घर कहीं भाग नहीं रहे थे
घरों के बाज़ार में हम शान से घूम सकते थे
हमने बहुत सारे घर देखे
घर देखने का हमें नशा हो गया
घर के ऊपर हम आज़ाद परिन्दों की तरह उड़ते
हमने देखा लाखों घर ख़ाली थे
और उन्हें हमारा इन्तज़ार था
ख़ाली घरों ने हमारा दिमाग़ ख़राब कर दिया
ये समन्दर वाला लें
या वो जंगल वाला
या पहाड़ से नीचे उतरते हुए
वह जो तुमने देखा था
अरे वह घर तुम इतनी जल्दी भूल गई
घर जहाँ तीन तरफ़ से हवा आती थी
घर जहाँ छह घण्टे सूरज मिलता था
घर जिसे कोई दूसरा घर छुपा नहीं सकता था
वह घर जो दूर से ही दिखता था
तुम उसे भूल गई
वह सस्ता मगर बहुत बड़ा घर

5.

घर तो बहुत सारे ख़ाली हैं
पर वे हिन्दुओं के घर हैं
वे मुसलमानों को नहीं मिलेंगे
कुछ घर चमारों को
कुछ दुसाधों को नहीं मिलेंगे
कुछ घरों को
शुद्ध शाकाहारियों का
करना पड़ेगा इन्तज़ार
कुछ घर
एडवांस के चक्कर में छूट जाएँगे
कुछ घरों को पण्डित
प्रेतात्माओं से छुड़ाएँगे

6.

आइए
आपको हम अपना घर दिखाते हैं
बड़े-बड़े कमरे देखिए
सब आपस में जुड़े हैं
आप इधर से भी
और उधर से भी आ-जा सकते हैं
खिड़कियाँ भी कम नहीं हैं
बड़ी-बड़ी भी हैं
घर में जैसे आकाश हो
लकड़ी बहुत लगी
एक विशाल पेड़ ही समझिए
कि पूरा घर में समा गया
सोने से भी महंगी है लकड़ी
लेकिन एक सपना था
पूरा हो गया
देखिए यहाँ बैठ जाइए
यहां सायँ-सायँ आती है हवा
जैसे घर में रहकर भी घर से बाहर हैं
समझिए कि किसी तरह बन गया ये घर
मेरे वश का नहीं था
इसे ईश्वर ने ही बनाया है
लाख से ऊपर बुनियाद में ही दब गया
तब है कि एक घर हो गया
अब कहीं जाना नहीं है
अब कहीं भटकना नहीं है
बेटे न जाने क्या करें
रखें न रखें
बुलाएँ न बुलाएँ
तीन साल तक समझिए
कहीं का नहीं छोड़ा इस घर ने
चाँदी-सोना सब इसी में भस गए
कहाँ-कहाँ हाथ फैलाना पड़ा
लेकिन आज सन्तोष है
अपना घर है तो देखिए
रसोईघर भी कितना बड़ा है
मरेंगे तो घर तो साथ नहीं ले जाएँगे
लेकिन ख़ुशी है
मरेंगे तो अपने घर में मरेंगे