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घसियारिन / पढ़ीस

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लोही लागयि पउ फाटि रहा
कस सुन्दर-सुन्दर!
च्यहकि चिरय्या ठाकुरजी धुनि
भुजकठटा<ref>‘ठाकुरजी-ठाकुरजी’ जैसी आवाज में बोलने वाला एक पक्षी</ref> गुनि गायि रहे।
वह चली जायि पंछिन ते-
बिहँसति, बिलसति व्वालति
खुरपा अउरू गँड़ासा बन देबी-
कर सोभा नायि रहे,
घसियारिनि घासयि जायि रही।
कस धूरि पुरवाई के झ्वाँका
बादरू अस मड़रायि रहे।
का चंदा मामा घेरि सँप्वलवा
अयिसी-वयिसी।
छुवा-छुअउवरि खेलि रहे-
अठिलाइ रहे, ब्यल्हरायि<ref>खेलना</ref> रहे?
घसियारिन घास निरायि रही।
बिन काजर कजरारी आँखी
अरूनारी<ref>अरूणाभ, लाल डोरे वाली आँखें</ref> भोली।
खोड़स<ref>षोडस, सोंलह</ref> बरसी भाउ भरे
छिहरायि<ref>बिखर जाना</ref> रहे, लहरायि रहे!
मन-हे-मन कोंछु पसारि
करयि परनामु नवेली।
बिस्व पिता किरनन ते हँसि
वह रूप-रासि अन्हवायि रहे-
कस गीतु बंदना गायि रही!
वहि के सुख की कुछु थाह कहाँ
इंदरानी पावयिं!
नटवर नयिना नाचि-नाचि
चरवाहे की छवि ताकि रहे।
बुहु आवा सुन्दर सांवलिया
मुसक्यातयि ब्वाला,
‘‘अब न छोलु’’ वह हँसि हेरिसि
दूनउ पियारू बरसायि रहे।
घसियारिनि हिउ हुलसाइ<ref>आनन्दित होना</ref> रही
दुलहा के मुड़े<ref>सिर</ref> पर गठरी,
वह पाछे-पाछे-
चली जाइ, सुखु झुलुवा<ref>झूला</ref> झूलति
स्वामीनाथ झुलायि रहे।
वह वहिके मन मा पइठि रही,
बुहू नस-नस ब्यापा;
घसियारे के सुख पर द्यउला
ल्यलकि-ल्यलकि<ref>ललक-ललक</ref> लयचायि रहे।
घसियारिनि घर का जायि रही।

शब्दार्थ
<references/>