Last modified on 13 मई 2014, at 21:03

घाट-घाट का पानी / अज्ञेय

होने और न होने की सीमा-रेखा पर सदा बने रहने का
असिधारा-व्रत जिस ने ठाना-सहज ठन गया जिस से-
वही जिया। पा गया अर्थ।
बार-बार जो जिये-मरे

यह नहीं कि वे सब
बार-बार तरवार-घाट पर
पीते रहे नये अर्थों का पानी।
अर्थ एक है: मिलता है तो एक बार: (गुड़-सा गूँगे को!)

और उसे दोहराना
दोहरे भ्रम में बह जाना है।