भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

घुट-घुट मरती राह / कर्मानंद आर्य

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:32, 21 मई 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कर्मानंद आर्य |अनुवादक= |संग्रह= }} {...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जिस शहर का इतिहास रक्तरंजित रहा
उस शहर में अपना इतिहास छुपाये रहता हूँ मैं

मैं अगड़े किस्म का दलित हूँ
सिटकिनी से भरा हुआ घर
बंद कर लेता हूँ जानबूझकर
किसी आहट के मरने से पहले
खुद को आवाज देता हूँ, गुम आवाज
भीतर बैठे हुए भय के लिए करता हूँ प्रार्थना

अपने ही चपरासी से डरा हुआ मैं
जाति की गाली सुनता हुआ
मरता हूँ थोड़ा-थोड़ा ऱोज
अपने बच्चों की खातिर

मेरा अर्दली
आगंतुकों को गालियों के साथ कराता है मेरा परिचय
निकालता है अपनी भड़ास
शायद उसके आसपास का माहौल रचाबसा हो उसके भीतर

मेरे आसपास कुछ भी अच्छा नहीं
अहंकार से भरी हुई दुनिया
चूहे सांप गिलहरियाँ केकड़े छछूंदर
आदमी का देह पहने कंकाल
एक दुनिया जहाँ कभी शाम नहीं होती
वह दुनिया जहाँ कभी दरवाजे नहीं खुलते

नफरत के दस्ताने पहने हुए लोगों के लम्बे नाख़ून नज़र नहीं आते
खून का स्याह रंग उनके जबड़े पर दिखाई नहीं देता
उनकी गुम चोटें दिखाई नहीं देती दोपहरी तक
बस बियाबान रातें रोती हैं सहलाते हुए सुबह

ऐसी दुनिया में डरा-डरा मैं
सुनता हूँ घात लगाये बैठे सारसों की बातें
बगुलों की चुप्पी
महोखे की गुपचुप चाल

सुनता हूँ सवर्ण पड़ोसी से
नीच लोगों के संस्कार जाते नहीं
नीची जाति मतलब नीचा आदमी
एक भरी पूरी किताब पढ़ी है उन्होंने
जातियों के व्यवहार पर
डरता हूँ अपनी जाति के भय खुलने से

बच्चों को पढ़ाता हूँ सामाजिक व्याकरण, ऊंच-नीच
भेद मत खोलना, अपनी जाति कुछ और बताना
मेरे हिस्से का अपमान और हिकारत
झेलते हैं मेरे बच्चे

मैं खुद के बारे में संकोच करता हूँ बताने से
शायद देखी हुई मक्खियाँ न निगले कोई

अजीब पशोपस में रहता हूँ
अँधेरी गलियों में झाकता हुआ
दलित मैं या दलित वो