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Kavita Kosh से
भर दिन
देवदार के पेड की तरह
दर्द से निशब्द निःशब्द सुबक सुबक कर रो कर
भर दिन
धरती और आकाश की विशालता से दूर
एक छोटी-सी जगह पे अपना पैर धँसाकर
शाम को
जब नेपाल सिकुडकर काठमांडू
और नयाँ सडक सिकुडकर - अनगिनत इन्सानों के पैरों से कुचलाकर,
टुकडों पे बँटकर
घूम ही रही है पृथ्वी - पहले की ही तरह
सिर्फ मैं अनभिज्ञ हूँ
दृश्यों से
खुशियों से,