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घूमनेवाली कुर्सी पे एक अंधा / भूपी शेरचन / सुमन पोखरेल

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भर दिन
खुश्क बाँस की तरह
खुद का खोखले वजुद पे
उँघकर,
पछता कर
भर दिन
बीमार चकोर की तरह
खुद के सीने पे खुद ही चोंच मारमार कर,
जख्मों को उधेडकर
भर दिन
देवदार के पेड की तरह
दर्द से निशब्द सुबक सुबक कर रो कर
भर दिन
कुकुरमुत्ने की तरह
धरती और आकाश की विशालता से दूर
एक छोटी-सी जगह पे अपना पैर धँसाकर
एक छोटी सी छतरी से खुद को ढक कर।

शाम को
जब नेपाल सिकुडकर काठमांडू
काठमान्डु सिकुडकर नयी सडक
और नयाँ सडक सिकुडकर - अनगिनत इन्सानों के पैरों से कुचलाकर,
टुकडों पे बँटकर
अखबार, चाय और पान की दुकाने बनता है,
किस्म-किस्म के परिधानों में
आती जाती हैं किस्म किस्म की अफवाहें
अंडा देती हुई मुर्गी की तरह चिल्लाकर
चलते हैं अखबार
और जगह जगह पे फुटपाथ पे चढ़ जाता है अँधेरा
गाड़ीयों की रोशनी से डरकर।

और अनगिनत मधुमख्खियों का भुनभुन और डंक से हडबडाकर
मै उठता हूँ
जैसे कयामत के दिन प्रेतात्मा उठते हैं
और न पाकर भूल जाने की दरिया
शराब के प्याले पे कूद पड़ता हूँ
और भूल जाता हूँ अपनी अतीत की सारी कहानियों को
पूर्वजन्म और मौत को।

इसी तरह हर रोज
चाय की कितली से एक सूरज उग आता है
हर रोज शराब की खाली प्याली पे एक सूरज डूब जाता है।
घूम ही रही है पृथ्वी - पहले की ही तरह
सिर्फ मैं अनभिज्ञ हूँ
अगलबगल के बदलाव से,
दृश्यों से
खुशियों से,
प्रदर्शनी पे राखी हुई घूमनेवाली कुर्सी पे
बेमन से बैठा हुआ एक अंधे की तरह।