भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

घोड़े-3 / दीनू कश्यप

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ताउम्र कुछ-न-कुछ ढोते हैं
काठी पर चढ़ी सवारी को
मालिक-सा अदब देते हैं वे
सवारी चाहे मूर्ख हो या होशियार
बीमार हो या तीमारदार
वफ़ादार हो या गद्दार
वे सभी को ढोते हैं
घोड़े जब हो जाते हैं लंगड़े
कर दिए जाते हैं अस्तबल से बाहर
बस्ती के वीराने में
अपाहिज घोड़े
रोते हैं जार-जार