भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चक्रव्यूह / अशोक कुमार

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:54, 15 अगस्त 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अशोक कुमार |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKav...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैंने खुद ही रचा है
अपने लिए एक चक्रव्यूह,
बुना है
अपना लिये ही एक मकडजाल।

मैंने कई हदें पार करने की कोशिश की थी
कई पहाड़, जंगल, नदियाँ, रेगिस्तान
कई बंदिशें, कई सरहदें
जो बाँधी थी खुद के लिए
उन्हें ही तोड़ कर निकल जाना चाहा था
एक अनजान देश, एक अनजाने मुकाम की ओर।

उन चहारदीवारियों को फांदने की कोशिश में
छिलीं थीं मेरी कुहनियाँ और घुटने
और रिसा था खून पसीने के साथ-साथ।

क्या तुम बता सकते हो
जब तुम बुनते हो खुद के लिए बंदिशें
तय करते हो खुद की सरहदें
रचते हो खुद की एक लक्ष्मण रेखा,
तो क्या सचमुच उस सीमा रेखा से
बाहर निकलने के लिए
तुम कभी नहीं छटपटाते।