Last modified on 13 अगस्त 2018, at 13:08

चढ़ते हुए दरिया को उतरते देखा / रतन पंडोरवी

 
चढ़ते हुए दरिया को उतरते देखा
जो डूब गया उस को उभरते देखा
मजमूआए-अज़्दाद है सारा आलम
जीते जिसे देखा उसे मरते देखा।


किस कहर का अफ़्सूने-महब्बत देखा
देखा जिसे मफ्तूने-महब्बत देखा।
अर्बाबे-महब्बत का तो कहना क्या है
खुद हुस्न को मरहूने-महब्बत देखा।

मादूम हूँ गो फिर भी हुवैदा हूँ मैं
हर शक्ल में हर शान में पैदा हूँ मैं
दुनिया में मिरा इश्क़ निराला ठहरा
अपने पे 'रतन' आप ही शैदा हूँ मैं।

दाने में निहां दाम नज़र आता है
आज़ाद भी नाकाम नज़र आता है
ये कौन सा आलम है कि जिस आलम में
आग़ाज़ भेज अंजाम नज़र आता है

जी चाहता है तुझ में फ़ना हो जाऊं
फ़ानी हूँ मगर शक्ले-बक़ा हो जाऊं
अपनी भी ख़बर नहीं है मुझ को अब तक
पहचान लूं ख़ुद को तो ख़ुदा हो जाऊं।


तस्बीह को जुन्नार को तोड़ा मैं ने
मुंह काबा-ओ-बुतखाने से मोडा मैं ने
बस एक ही तस्वीर है आंखों में 'रतन'
आईनए-दिल में उसे जोड़ा मैं ने।

क़तरा जिसे समझे थे समंदर निकला
ज़र्रा जिसे जाना शहे-खावर निकला
हर जुज़्व हक़ीक़त में है कुल की तस्वीर
नाचीज़ बशर ख़ुदा का मज़हर निकला।

जब किब्र से इंसान जुदा हो जाये
उक़्दा जो हक़ीक़त का है वा हो जाये
बनना हो जिसे ख़ल्क़ में मखदूम 'रतन'
ख़ुद साहिबे-तस्लीम-ओ-रिज़ा हो जाये

पस्ती में बलंदी का निशां मिलता है
मिट कर ही सुकूने-दिल-ओ-जां मिलता है
हूँ खाके-रहे-इश्क़ 'रतन' मैं जब से
फिरदौस का ऐशे-जाविदां मिलता है।

क्यों गर्दिशे-किस्मत का गिला करता है
क्यों चाक गिरिबाने-वफ़ा करता है
नाकामिए-पैहम के ख़ुदा से शिक्वे
जो कुछ भी वो करता है बज करता है।

गो ज़र्रा हूँ लेकिन शहे-ख़ावर हूँ मैं
हर शक्ल में इक जलवाए-दावर हूँ मैं
मैं कुछ भी नहीं और हूँ फिर भी सब कुछ
इस हस्तीए-फ़ानी पे निछावर हूँ मैं।

कतरों में समंदर भी रवां मिलता है
ज़र्रात में ख़ुर्शीद अयाँ मिलता है
क्यों नाज़ न हो ख़ाक नशीनी पे मुझे
इस ख़ाक में जन्नत का निशां मिलता है।