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क्या इस जगत का मूल कारणजो निराकार स्वरुप में तो, ब्रह्म कौन अवर्ण है व् हम सभी?अरूप है,<br>उत्पन्न किससेनिहितार्थ वह ही विविध रूपों में, किसमें जीते, किसके हैं आधीन भी?विविध रखता रूप है।<br>किसकी व्यवस्था के अनंतरऔर अंत में विश्वानि विश्व भी , दुःख सुख का विधान ब्रह्म में ही लीन है, <br>कथ कौन संचालक जगत कावही एकमेव प्रभो हमें, कौन ब्रह्म महान है? शुभ बुद्धि दे हम दीन हैं॥ [ १ ]<br><br>
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ये ही ब्रह्म हैं जल, वायु, अग्नि , सूर्य, शशि, नक्षत्र भी,<br>
यही जल प्रजापति, यही ब्रह्मा, व्याप्त अथ सर्वत्र भी.<br>
परब्रह्म परमेश्वर की ही तो विभूतियाँ कण -कण में हैं.<br>
हो श्रेय चिंतन मानवों को, प्रेय वह क्षण - क्षण में है. [ २ ]<br><br>
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प्रभु आप ही तो कुमार हो अथवा कुमारी नर भी तू ,<br>
नारी तू ही और वृद्ध तू , चले दंड के आधार तू.<br>
जन -जन के मुख के रूप में, परमेश का ही रूप है,<br>
अर्थात इस सम्पूर्ण जग में, तेरा ही तो स्वरुप है. [ ३ ]<br><br>
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<span class="mantra_translation"> तू ही नील वर्ण पतंग है, तू ही मेघ ऋतुएं बसंत है,<br>तू ही हरित वर्ण व् लाल चक्षुओं वाला खग है , अनंत है.<br>तू ही सप्त जलधि रूप , तुझसे सब जगत निष्पन्न है,<br>आद्यंतहीन , अव्यक्त, व्यापक, सबमें तू आसन्न है. [ ४ ]<br><br>
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सत रज व् तम् ये त्रिगुणात्मक , प्रकृति प्रभु से सृजित है,<br>
अपरा प्रकृति के जीव भोगें, भोग जो स्व रचित है.<br>
और परा प्रकृति के जीव , कर्मों के भोग करते क्षीण हैं,<br>
निःसार क्षण भंगुर समझ, परित्याग करते प्रवीण हैं [ ५ ]<br><br>
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यह देह मानव की तो मानो वृक्ष पीपल का अहे,<br>
जीवात्मा परमात्मा , दो मित्र पक्षी बन रहे .<br>
जीवात्मा खग कर्म करता और फल भी है भोगता,<br>
परमात्मा खग विरत वृति से देखता नहीं भोगता॥ [ ६ ]<br><br>
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उस वृक्ष पर जीवात्मा, आसक्ति में ही निमग्न है,<br>
मोहित हुआ सुख दुःख , विकारों में ही अथ संलग्न है.<br>
जब प्रभु अहैतु की कृपा हो , तब ही करुनागार के,<br>
अति महिम रूप को देख , दुःख हों शेष सब संसार के॥ [ ७ ]<br><br>
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प्रभु दिव्य अविनाशी परम नभ रूप में व्यापक महे,<br>
सब देवगण जिसमें यथोचित वेद भी स्थित रहे .<br>
वेदादि सारे देव सेवक, पार्षदों के रूप में ,<br>
इस मर्म के मर्मज्ञ, जानें ब्रह्म रूप अनूप को॥ [ ८ ]<br><br>
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बहु विविध व्रत, यज्ञादि ज्योतिष छंद तीनों काल का,<br>
हैं वेदों में वर्णन यथोचित , इनमें अंश त्रिकाल का .<br>
विश्वानि जग प्रकृति का अधिपति, ब्रह्म से ही सृजित है,<br>
जीवात्मा माया से बंध, बहु मोह से भी ग्रसित है॥ [ ९ ]<br><br>
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माया तो प्रभु परमेश की ही , शक्ति रूपा प्रकृति है,<br>
अधिपति प्रकृति का ब्रह्म है, संसार जिसकी कृति है,<br>
इसी कार्य कारण रूप का , परिणाम यह ब्रह्माण्ड है,<br>
माया व् मायापति की महिमा , महिम है व् प्रकांड॥ [ १० ]<br><br>
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<span class="mantra_translation">
है अधिष्ठाता योनियों का , ब्रह्म तो एकमेव ही,<br>
वही सृष्टि काले विविध रोपों में, प्रगट हो सदैव ही.<br>
हो प्रलय काले विलीन जग , उसी एक सर्वाधार में,<br>
कैवल्य सुख, जिसे जान पाये, जीव करुणाधार में॥ [ ११ ]<br><br>
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विश्वधिपति सर्वज्ञ रुद्र ने , इन्द्र देवों को रचा,<br>
उसने हिरण्यगर्भ को, अति आदि में आदि रचा.<br>
वही ब्रह्मा के भी पूर्ववर्ती , ब्रह्म शुभ शुचि बुद्धि से,<br>
हम कर्म सब शुभ कर सकें , अति सत्य सात्विक शुद्धि से॥ [ १२ ]<br><br>
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देवाधिपति है ब्रह्म जिसमें , लोक सब आश्रित तथा,<br>
वही जीव समुदायों का शासक और स्वामी है यथा .<br>
हम पूर्ण श्रद्धा भक्ति से, हविः रूप अर्पित अर्चना ,<br>
कर दें समर्पण पूर्ण प्रभु को , सिद्ध हो अभ्यर्थना॥ [ १३ ]<br><br>
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प्रभु सूक्ष्म से भी सूक्ष्म अति और विशद बहु आकार भी,<br>
वही हृदय रूप गुफा में स्थित , विश्व रचनाकार भी .<br>
बहु रूप धारक विश्व वेष्ठित, शिवम् ब्रह्म से विज्ञ जो,<br>
उन्हें शान्ति शाश्वत , चित्त उपरत, निकट है सर्वज्ञ जो॥ [ १४ ]<br><br>
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वही काल ब्रह्मांडों का रक्षक , विश्व अधिपति गूढ़ है,<br>
वेदज्ञ , देव, महर्षि जिसके ध्यान में आरूढ़ हैं,<br>
उसे जान मृत्यु के बंधनों से मुक्त हो जीवात्मा,<br>
संलग्न निश्चय ब्रह्म से हो पायें वे परमात्मा॥ [ १५ ]<br><br>
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यही सार का भी सार अतिशय , सूक्ष्म अनुपम गूढ़ है,<br>
सब प्राणियों ब्रह्माण्ड में मक्खन के सम आरूढ़ है.<br>
परब्रह्म तो ब्रह्माण्ड को वेष्ठित किए , स्थित महे,<br>
मानव जो उसको जानता, बंधन कहाँ कोई रहे ? [ १६ ]<br><br>
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वह विश्व करता तो मानवों के हृदय स्थित सर्वदा,<br>
जो हृदय से, बुद्धि मन से, हो ध्यान स्थित वसुविदा.<br>
इस तरह साधक को ही प्रत्यक्ष हो परमात्मा,<br>
अथ, मर्म के मर्मज्ञ होते अमिय रूप महात्मा॥ [ १७ ]<br><br>
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<span class="mantra_translation">
यह अज्ञान- तम् जब शेष हो , अनुभूति तत्व विशेष हो,<br>
वह तत्व दिन है न रात है, न सत असत का प्रवेश हो.<br>
शिव स्वस्ति अविनाशी अनादि अमिय अक्षर शुभ महे,<br>
वह सूर्य का भी उपास्य , उससे ही ज्ञान विस्तृत हो रहे॥ [ १८ ]<br><br>
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ऊपर न नीचे मध्य से नहीं ग्राह्य न ही विराम है,<br>
अतिशय परात्पर ब्रह्म की , उपमा नहीं न ही नाम है.<br>
परमेश प्रभु अतिशय विलक्षण , सर्वथा ही अग्राह्य है,<br>
उसकी कृपा करुणा का सारे , विश्व में तो प्रवाह है॥ [ १९ ]<br><br>
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<span class="mantra_translation">
नहीं चक्षुओं से दृष्टि गोचर ,ब्रह्म हो सकता कभी,<br>
अन्तः करण में भक्त को ही , ब्रह्म दिखता है कभी.<br>
भक्ति से साधक को हृदय स्थित, प्रभो साकार है,<br>
जिसे दिव्य दृष्टि दया निधि से मिलती वह भव पार है॥ [ २० ]<br><br>
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<span class="mantra_translation">
है रुद्र संहारक अजन्मा , आप मृत्यु विहीन है,<br>
हम जन्म - मृत्यु के भय ग्रसित, मानव हैं बुद्धि विहीन हैं,<br>
हम जन्म - मृत्यु भय विहीन हों , अथ शरण हैं आपकी,<br>
मम सर्वदा रक्षा करो, हटे भावना संताप की॥ [ २१ ]<br><br>
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<span class="mantra_translation">
हे रुद्र संहारक, विविध उपहार लेकर हम सदा,<br>
तुझको बुलाते, तू अतः कल्याण करना सर्वदा.<br>
मम पुत्र , पौत्रों, अश्वों, गौओं पर न क्रोधित हों कभी,<br>
शुभ दृष्टि रखना सर्वदा , संताप हर लेना सभी॥ [ २२ ]<br><br>
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