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चतुर्थ अध्याय / श्वेताश्वतरोपनिषद / मृदुल कीर्ति

य एकोऽवर्णो बहुधा शक्तियोगाद् वरणाननेकान् निहितार्थो दधाति ।
विचैति चान्ते विश्वमादौ च देवः स नो बुद्ध्या शुभया संयुनक्तु ॥१॥

जो निराकार स्वरुप में तो, अवर्ण है व् अरूप है,
निहितार्थ वह ही विविध रूपों में, विविध रखता रूप है।
और अंत में विश्वानि विश्व भी , ब्रह्म में ही लीन है,
वही एकमेव प्रभो हमें, शुभ बुद्धि दे हम दीन हैं॥ [ १ ]

तदेवाग्निस्तदादित्यस्तद्वायुस्तदु चन्द्रमाः ।
तदेव शुक्रं तद् ब्रह्म तदापस्तत् प्रजापतिः ॥२॥

ये ही ब्रह्म हैं जल, वायु, अग्नि , सूर्य, शशि, नक्षत्र भी,
यही जल प्रजापति, यही ब्रह्मा, व्याप्त अथ सर्वत्र भी.
परब्रह्म परमेश्वर की ही तो विभूतियाँ कण -कण में हैं.
हो श्रेय चिंतन मानवों को, प्रेय वह क्षण - क्षण में है. [ २ ]

त्वं स्त्री पुमानसि त्वं कुमार उत वा कुमारी ।
त्वं जीर्णो दण्डेन वञ्चसि त्वं जातो भवसि विश्वतोमुखः ॥३॥

प्रभु आप ही तो कुमार हो अथवा कुमारी नर भी तू ,
नारी तू ही और वृद्ध तू , चले दंड के आधार तू.
जन -जन के मुख के रूप में, परमेश का ही रूप है,
अर्थात इस सम्पूर्ण जग में, तेरा ही तो स्वरुप है. [ ३ ]

नीलः पतङ्गो हरितो लोहिताक्षस्तडिद्गर्भ ऋतवः समुद्राः ।
अनादिमत् त्वं विभुत्वेन वर्तसे यतो जातानि भुवनानि विश्वा ॥४॥

तू ही नील वर्ण पतंग है, तू ही मेघ ऋतुएं बसंत है,
तू ही हरित वर्ण व् लाल चक्षुओं वाला खग है , अनंत है.
तू ही सप्त जलधि रूप , तुझसे सब जगत निष्पन्न है,
आद्यंतहीन , अव्यक्त, व्यापक, सबमें तू आसन्न है. [ ४ ]

अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णां बह्वीः प्रजाः सृजमानां सरूपाः ।
अजो ह्येको जुषमाणोऽनुशेते जहात्येनां भुक्तभोगामजोऽन्यः ॥५॥

सत रज व् तम् ये त्रिगुणात्मक , प्रकृति प्रभु से सृजित है,
अपरा प्रकृति के जीव भोगें, भोग जो स्व रचित है.
और परा प्रकृति के जीव , कर्मों के भोग करते क्षीण हैं,
निःसार क्षण भंगुर समझ, परित्याग करते प्रवीण हैं [ ५ ]

द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते ।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति ॥६॥

यह देह मानव की तो मानो वृक्ष पीपल का अहे,
जीवात्मा परमात्मा , दो मित्र पक्षी बन रहे .
जीवात्मा खग कर्म करता और फल भी है भोगता,
परमात्मा खग विरत वृति से देखता नहीं भोगता॥ [ ६ ]

समाने वृक्षे पुरुषो निमग्नोऽनीशया शोचति मुह्यमानः ।
जुष्टं यदा पश्यत्यन्यमीशमस्य महिमानमिति वीतशोकः ॥७॥

उस वृक्ष पर जीवात्मा, आसक्ति में ही निमग्न है,
मोहित हुआ सुख दुःख , विकारों में ही अथ संलग्न है.
जब प्रभु अहैतु की कृपा हो , तब ही करुनागार के,
अति महिम रूप को देख , दुःख हों शेष सब संसार के॥ [ ७ ]

ऋचो अक्षरे परमे व्योमन् यस्मिन्देवा अधि विश्वे निषेदुः ।
यस्तं न वेद किमृचा करिष्यति य इत्तद्विदुस्त इमे समासते ॥८॥

प्रभु दिव्य अविनाशी परम नभ रूप में व्यापक महे,
सब देवगण जिसमें यथोचित वेद भी स्थित रहे .
वेदादि सारे देव सेवक, पार्षदों के रूप में ,
इस मर्म के मर्मज्ञ, जानें ब्रह्म रूप अनूप को॥ [ ८ ]

छन्दांसि यज्ञाः क्रतवो व्रतानि भूतं भव्यं यच्च वेदा वदन्ति ।
अस्मान् मायी सृजते विश्वमेतत्तस्मिंश्चान्यो मायया सन्निरुद्धः ॥९॥

बहु विविध व्रत, यज्ञादि ज्योतिष छंद तीनों काल का,
हैं वेदों में वर्णन यथोचित , इनमें अंश त्रिकाल का .
विश्वानि जग प्रकृति का अधिपति, ब्रह्म से ही सृजित है,
जीवात्मा माया से बंध, बहु मोह से भी ग्रसित है॥ [ ९ ]

मायां तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनं च महेश्वरम् ।
तस्यवयवभूतैस्तु व्याप्तं सर्वमिदं जगत् ॥१०॥

माया तो प्रभु परमेश की ही , शक्ति रूपा प्रकृति है,
अधिपति प्रकृति का ब्रह्म है, संसार जिसकी कृति है,
इसी कार्य कारण रूप का , परिणाम यह ब्रह्माण्ड है,
माया व् मायापति की महिमा , महिम है व् प्रकांड॥ [ १० ]

यो योनिं योनिमधितिष्ठत्येको यस्मिन्निदाम् सं च विचैति सर्वम् ।
तमीशानं वरदं देवमीड्यं निचाय्येमां शान्तिमत्यन्तमेति ॥११॥

है अधिष्ठाता योनियों का , ब्रह्म तो एकमेव ही,
वही सृष्टि काले विविध रोपों में, प्रगट हो सदैव ही.
हो प्रलय काले विलीन जग , उसी एक सर्वाधार में,
कैवल्य सुख, जिसे जान पाये, जीव करुणाधार में॥ [ ११ ]

यो देवानां प्रभवश्चोद्भवश्च विश्वाधिपो रुद्रो महर्षिः ।
हिरण्यगर्भं पश्यत जायमानं स नो बुद्ध्या शुभया संयुनक्तु ॥१२॥

विश्वधिपति सर्वज्ञ रुद्र ने , इन्द्र देवों को रचा,
उसने हिरण्यगर्भ को, अति आदि में आदि रचा.
वही ब्रह्मा के भी पूर्ववर्ती , ब्रह्म शुभ शुचि बुद्धि से,
हम कर्म सब शुभ कर सकें , अति सत्य सात्विक शुद्धि से॥ [ १२ ]

यो देवानामधिपो यस्मिन्ल्लोका अधिश्रिताः ।
य ईशे अस्य द्विपदश्चतुष्पदः कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥१३॥

देवाधिपति है ब्रह्म जिसमें , लोक सब आश्रित तथा,
वही जीव समुदायों का शासक और स्वामी है यथा .
हम पूर्ण श्रद्धा भक्ति से, हविः रूप अर्पित अर्चना ,
कर दें समर्पण पूर्ण प्रभु को , सिद्ध हो अभ्यर्थना॥ [ १३ ]

सूक्ष्मातिसूक्ष्मं कलिलस्य मध्ये विश्वस्य स्रष्ठारमनेकरूपम् ।
विश्वस्यैकं परिवेष्टितारं ज्ञात्वा शिवं शान्तिमत्यन्तमेति ॥१४॥

प्रभु सूक्ष्म से भी सूक्ष्म अति और विशद बहु आकार भी,
वही हृदय रूप गुफा में स्थित , विश्व रचनाकार भी .
बहु रूप धारक विश्व वेष्ठित, शिवम् ब्रह्म से विज्ञ जो,
उन्हें शान्ति शाश्वत , चित्त उपरत, निकट है सर्वज्ञ जो॥ [ १४ ]

स एव काले भुवनस्य गोप्ता विश्वाधिपः सर्वभूतेषु गूढः ।
यस्मिन् युक्ता ब्रह्मर्षयो देवताश्च तमेवं ज्ञात्वा मृत्युपाशांश्छिनत्ति ॥१५॥

वही काल ब्रह्मांडों का रक्षक , विश्व अधिपति गूढ़ है,
वेदज्ञ , देव, महर्षि जिसके ध्यान में आरूढ़ हैं,
उसे जान मृत्यु के बंधनों से मुक्त हो जीवात्मा,
संलग्न निश्चय ब्रह्म से हो पायें वे परमात्मा॥ [ १५ ]

घृतात् परं मण्डमिवातिसूक्ष्मं ज्ञात्वा शिवं सर्वभूतेषु गूढम् ।
विश्वस्यैकं परिवेष्टितारं ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः ॥१६॥

यही सार का भी सार अतिशय , सूक्ष्म अनुपम गूढ़ है,
सब प्राणियों ब्रह्माण्ड में मक्खन के सम आरूढ़ है.
परब्रह्म तो ब्रह्माण्ड को वेष्ठित किए , स्थित महे,
मानव जो उसको जानता, बंधन कहाँ कोई रहे ? [ १६ ]

एष देवो विश्वकर्मा महात्मा सदा जनानां हृदये सन्निविष्टः ।
हृदा मनीषा मनसाभिक्लृप्तो य एतद् विदुरमृतास्ते भवन्ति ॥१७॥

वह विश्व करता तो मानवों के हृदय स्थित सर्वदा,
जो हृदय से, बुद्धि मन से, हो ध्यान स्थित वसुविदा.
इस तरह साधक को ही प्रत्यक्ष हो परमात्मा,
अथ, मर्म के मर्मज्ञ होते अमिय रूप महात्मा॥ [ १७ ]

यदाऽतमस्तान्न दिवा न रात्रिः न सन्नचासच्छिव एव केवलः ।
तदक्षरं तत् सवितुर्वरेण्यं प्रज्ञा च तस्मात् प्रसृता पुराणी ॥१८॥

यह अज्ञान- तम् जब शेष हो , अनुभूति तत्व विशेष हो,
वह तत्व दिन है न रात है, न सत असत का प्रवेश हो.
शिव स्वस्ति अविनाशी अनादि अमिय अक्षर शुभ महे,
वह सूर्य का भी उपास्य , उससे ही ज्ञान विस्तृत हो रहे॥ [ १८ ]

नैनमूर्ध्वं न तिर्यञ्चं न मध्ये न परिजग्रभत् ।
न तस्य प्रतिमा अस्ति यस्य नाम महद् यशः ॥१९॥

ऊपर न नीचे मध्य से नहीं ग्राह्य न ही विराम है,
अतिशय परात्पर ब्रह्म की , उपमा नहीं न ही नाम है.
परमेश प्रभु अतिशय विलक्षण , सर्वथा ही अग्राह्य है,
उसकी कृपा करुणा का सारे , विश्व में तो प्रवाह है॥ [ १९ ]

न संदृशे तिष्ठति रूपमस्य न चक्षुषा पश्यति कश्चनैनम् ।
हृदा हृदिस्थं मनसा य एनमेवं विदुरमृतास्ते भवन्ति ॥२०॥

नहीं चक्षुओं से दृष्टि गोचर ,ब्रह्म हो सकता कभी,
अन्तः करण में भक्त को ही , ब्रह्म दिखता है कभी.
भक्ति से साधक को हृदय स्थित, प्रभो साकार है,
जिसे दिव्य दृष्टि दया निधि से मिलती वह भव पार है॥ [ २० ]

अजात इत्येवं कश्चिद्भीरुः प्रपद्यते ।
रुद्र यत्ते दक्षिणं मुखं तेन मां पाहि नित्यम् ॥२१॥

है रुद्र संहारक अजन्मा , आप मृत्यु विहीन है,
हम जन्म - मृत्यु के भय ग्रसित, मानव हैं बुद्धि विहीन हैं,
हम जन्म - मृत्यु भय विहीन हों , अथ शरण हैं आपकी,
मम सर्वदा रक्षा करो, हटे भावना संताप की॥ [ २१ ]

मा नस्तोके तनये मा न आयुषि मा नो गोषु मा न अश्वेषु रीरिषः ।
वीरान् मा नो रुद्र भामितो वधीर्हविष्मन्तः सदामित् त्वा हवामहे ॥२२॥

हे रुद्र संहारक, विविध उपहार लेकर हम सदा,
तुझको बुलाते, तू अतः कल्याण करना सर्वदा.
मम पुत्र , पौत्रों, अश्वों, गौओं पर न क्रोधित हों कभी,
शुभ दृष्टि रखना सर्वदा , संताप हर लेना सभी॥ [ २२ ]