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"चलता मैं ही भार लिये / अशोक शाह" के अवतरणों में अंतर

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आकाश मुझे उठाता नहीं
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धरती कहाँ गिराती मुझको
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मैं ही रह न पाता निःसंग
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पुष्प सुगन्ध मुझको नहीं देता
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नयनों का न होता रंग
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चलता मैं ही भार लिये
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कुछ करने का उपकार लिये
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अर्थ-अनर्थ का भेद लिये
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करता उपद्रव संस्कार लिये
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रंग में भंग मैंने ही डाला
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फूलों का बन बैठा माली
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धूप इकट्ठा करने जेब में
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फिरता रहा डाली डाली
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सपने देखे, नाम बुने
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कोयल किसी को काग कहा
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राग-द्वेष के चीर में लिपटा
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हर सच को ही आग कहा
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यह तो है स्वभाव नदी का
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वेग लिये बहते जाना
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बिना किये परवाह कूलों की
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कथा धारा की कहते जाना
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था अंतरिक्ष का खुला आँचल
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मैंने ही पानी गागर भर लाया
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सीमाओं पर नाम लिखा और
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मेरा-मेरा कह अगराया
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मुक्त निसर्ग के कैनवास पर
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उगता नया है शुक्र भोर का
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यह संसार भ्रम प्रतिबिम्ब का
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रचा प्रतिध्वनियों के शोर का
  
 
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22:12, 7 अगस्त 2020 के समय का अवतरण

बारिश नहीं भिगोती मुझको
सूरज मुझे जलाता नहीं
पवन सोखता नमी न मुझसे
आकाश मुझे उठाता नहीं

धरती कहाँ गिराती मुझको
मैं ही रह न पाता निःसंग
पुष्प सुगन्ध मुझको नहीं देता
नयनों का न होता रंग

चलता मैं ही भार लिये
कुछ करने का उपकार लिये
अर्थ-अनर्थ का भेद लिये
करता उपद्रव संस्कार लिये

रंग में भंग मैंने ही डाला
फूलों का बन बैठा माली
धूप इकट्ठा करने जेब में
फिरता रहा डाली डाली

सपने देखे, नाम बुने
कोयल किसी को काग कहा
राग-द्वेष के चीर में लिपटा
हर सच को ही आग कहा

यह तो है स्वभाव नदी का
वेग लिये बहते जाना
बिना किये परवाह कूलों की
कथा धारा की कहते जाना

था अंतरिक्ष का खुला आँचल
मैंने ही पानी गागर भर लाया
सीमाओं पर नाम लिखा और
मेरा-मेरा कह अगराया

मुक्त निसर्ग के कैनवास पर
उगता नया है शुक्र भोर का
यह संसार भ्रम प्रतिबिम्ब का
रचा प्रतिध्वनियों के शोर का