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चलती है क़लम जब कभी उनवान से आगे / रवि सिन्हा

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चलती है क़लम जब कभी उनवान<ref>शीर्षक</ref> से आगे
अल्फ़ाज़ की मंज़िल कहीं इरफ़ान<ref>विवेक</ref> से आगे

उम्मीद तो रखिए कि ये वहशत भी थकेगी
सुनते हैं सुकूँ है कहीं विज्दान<ref> हर्षोन्माद</ref> से आगे

चाहो तो नए दैर<ref>मन्दिर</ref> में मूरत भी बिठा लो
जाना है मगर ख़ल्क़<ref>लोग</ref> को भगवान से आगे

तारीख़ ने हर बार सज़ा उसको सुनाई
पहुँचा जो ख़बर ले के वो तूफ़ान से आगे

दुनिया जो चली थी किसी इन्सान के पीछे
दुनिया का सफ़र अब उसी इन्सान से आगे

रोटी की जगह केक के जुमले पे बग़ावत
फैले तो कोई बात फिर ऐवान<ref>महल</ref> से आगे

ज़ाहिर में ख़ुदी रक़्स<ref>नृत्य</ref> में है बज़्मे-बरहना<ref>नंगों की सभा</ref>
बातिन<ref>अन्तर्मन</ref> के सरोकार हैं पहचान से आगे

अब किसको मसर्रत<ref>आनन्द</ref> से ग़रज़ क्यूँ हो तमाशा
निकले जो हुए हम किसी अरमान से आगे

तरतीबे-अनासिर<ref>पंचतत्त्व की संरचना</ref> से तसव्वुर<ref>कल्पना</ref> की ठनी है
चलते हैं हक़ीक़त के हर इम्कान<ref>सम्भावना</ref> से आगे

शब्दार्थ
<references/>