भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चलते-चलते बंजारों को / राजेश शर्मा

Kavita Kosh से
राजेश शर्मा (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:50, 9 अप्रैल 2012 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


चलते-चलते बंजारों को,बात अधूरी कह जाने दो,
टुकड़ा-टुकड़ा,दर्द अनपिया,आंसू बनकर बह जाने दो.
 
जग का खारापन पीते हें,लहरों सा जीवन जीते हें,
स्वाति-बूँद की लिए प्रतीक्षा,सीप हुए पल-छिन बीते हें.
सागर की तह के अभिलाषी,तिनके के सँग बह जाने दो.
 
इमली,जामुन,बेर,करौंदे, पागल मन के नेह घरोंदे
एक सांत्वना दे जाते हें, तूफानों ने जब-जब रोंदे.
स्वप्न-महल के वासी हो तुम,माटी के घर,ढह जाने दो.
 
तृष्णा ने दिन भर भटकाया,खुद से भागा,खुद तक आया,
सम्मोहन ने जाल बुने हें,सूरज डूबा, तम गहराया .
मन के पंछी लौट चले हें,साँझ हुई अब घर जाने दो.
 
किंचित कभी हवा पगलाए,घायल संवेदन सहलाए ,
बिरह की मारी, कोइ बदरिया,नयनों में सावन भर लाए.
कोई मीत लिपट कर रोए ,गीत यहीं पर रह जाने दो.