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चलो, बान्धें नाव को उस पार, बन्धु ! / स्वदेश भारती

चलो, बान्धें नाव को उस पार, बन्धु !
हृदय-सागर के किनारे
आत्ममन - विश्वास से बनी सुन्दर, सौम्य, सुखकर
भाव-श्रद्धा, सम्प्रीति रचित तटनी को चलाएँ
समय की उत्ताल लहरों में मन की सधी
पतवार नियन्त्रित कर
नहीं माने हार, बन्धु !

हृदय की उत्ताल लहरों से प्रकम्पित
जब भी नाव डगमग डोलती
खोलती अनबूझ अन्तर व्यथा-कथा
सहती आलोड़न

चलती मौन के मँझधार में अतिशय तरँगित
आत्मबल का बोझ लादे
और ला दे तीव्र अभिलाषा कि
पहुँचे सिन्धु के उस पार
काटे प्रीति की मँझधार, बन्धु !

चलो, बान्धें नाव को उस पार, बन्धु !

कोलकाता, 24 अप्रैल 2013